पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

काफी सफलता पाई है। यह सही अर्थशास्त्र है। इस तरह कार्यकर्त्तागण एक और खादी खरीदने वाले मध्यवर्गीय लोगोंसे, और दूसरी ओर खादी तैयार करनेवाले निर्धन वर्गोंसे सम्बन्ध बनानेमें सफल हो सके हैं। फलस्वरूप खरीदारके ध्यानसे कपड़ेके प्रकार, विविधता और कीमतमें सुधार हुआ है। खादीके बढ़ते हुए सस्तेपनकी एक विलक्षण बात यह है कि खादीके मूल्यमें तो कमी हुई है, लेकिन धुनियाँ, कातने-वाले, और बुनकरोंकी मजदूरीमें कोई कमी नहीं हुई है। कीमतोंमें यह कमी उद्योग सम्बन्धी ज्ञान बढ़ने और प्रबन्ध-कुशलताके कारण हुई है।

सुसंगठित बिक्रीका सबसे ताजा विवरण सिलहटसे मिला है। श्रीयुत धीरेन्द्रनाथ दासगुप्त सिलहटके निकट कुलौरामें एक छोटा-सा खादी केन्द्र चलाते रहे हैं। उन्होंने लिखा है कि केवल पूजाकी छुट्टियोंके दौरान उन्होंने २६०० रुपयोंसे भी अधिककी खादी बेची।

हालाँकि इसमें सन्देह नहीं कि बंगालकी ही तरह अन्य प्रान्तों में भी काफी प्रगति हुई है, लेकिन वहाँ बिक्री-कार्यका संगठन इतने अच्छे ढँगसे नहीं हुआ है। बिहार, बंगालके बहुत करीब पहुँचनेकी कोशिश कर रहा है। लेकिन सभी प्रान्तोंमें कार्यकर्त्ताओंको बिक्री बढ़ानेके तरीके ढूंढ़ने चाहिए। श्री भरूचा और अन्य प्रमुख लोगोंके अनुभवोंको एकत्र करना चाहिए और हर प्रान्तकी आवश्यकताओंको देखते हुए वहाँके उपयुक्त योजनाएँ तैयार करके उन्हें कार्यान्वित किया जाना चाहिए। फेरी लगाकर बेचना और प्रदर्शनियां आयोजित करना, ये दो उपाय तो स्थायी रूप ग्रहण कर चुके हैं। किन्तु यदि छोटीसे-छोटी तफसील भी तय न कर ली जाये तो योजनाएँ अव्यावहारिक हो जायेंगी और सारी पूँजीके निरीक्षण और प्रबन्धमें लग जानेका खतरा पैदा हो जायेगा। इस लिहाजसे हिन्दुस्तानके विभिन्न भागोंमें कुछ भंडार ऐसे हैं जिन्हें बन्द कर देना चाहिए। जिस खादी भंडारका सालाना खर्च ५०० रु० हो और सालमें खादीकी बिक्री भी इतनी ही हो, वह बन्दकर देने लायक है। या तो वहाँ हद दर्जेकी बदइन्तजामी है और या फिर वहाँके कार्यकर्त्ताओंको खादीके कामके बारेमें ही कुछ भी जानकारी नहीं है।

सच्ची भावना

एक पत्र लेखकने लिखा है:[१]

मेरी समझमें तो जहाँतक भावनाका सवाल है उक्त पत्र लेखक दोनों ही संस्थाओंका सदस्य है। नियमकी दृष्टिसे यदि वह अपना काता हुआ सूत अखिल भारतीय चरखा संघके अपने जिलेके प्रतिनिधिके सामने प्रस्तुत कर दे और अपने उस सूतका दाम भेज दे तो वह सदस्य बन जायेगा। किन्तु कुछ लोगोंके लिए इतनी रकम भेजना भी सम्भव नहीं होता। उस हालत में वे अपनी भावनामें उसके सदस्य

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। इसमें पत्र-लेखकने लिखा था कि अपनी आर्थिक कठिनाइयोंके कारण स्वयं सूत कातनेवाला और बुनकर होनेके बावजूद वह अखिल भारतीय चरखा संघ और अखिल भारतीय गोरक्षा संघका सदस्यता शुल्क नहीं दे पाता।