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५३. पत्र : रेवाशंकर मेहताको

कार्तिक सुदी १४ [१८ नवम्बर, १९२६ ][१]

आदरणीय रेवाशंकर भाई,

आपका पत्र मिला। जमनादास स्कूलका काम करे तो यह बहुत अच्छी बात है। [ रामचन्द्रनकी ] लिफ्टमें[२] कितनी पूंजी लगाई जा सकती है सो बताइएगा। इस बारेमें तनिक भी संकोच न कीजिएगा। रुपये-पैसेके मामलेमें जानने की इच्छा मैंने कभी की ही नहीं है इसलिए मुमकिन है अवगत न होनेके कारण में कोई साहसिक माँग कर बैठूं। ऐसा हो तब उसे रोकना आपका धर्म है और इसी विश्वासको लेकर मैं उचित अवसरपर माँग करते हुए संकोच नहीं करूँगा। आपने देवलाली जानेका विचार करके ठीक किया। धीरूका[३] मन यदि यहाँ लग जाये तो उसे यहाँ भेजनेमें कोई अड़चन नहीं है। मुझे कोई बोझ नहीं होगा। आजकल मौसम तो बहुत अच्छा है।

मेरा देवलाली जाना संभव नहीं और फिलहाल जानेकी कोई जरूरत भी नहीं है।

मोहनदासके प्रणाम

गुजराती पत्र ( जी० एन० १२६०) की फोटो नकलसे।

५४. पत्र : बापूभाई नारणजी वशीको

कार्तिक सुदी १४, १९८३, १८ नवम्बर, १९२६

भाईश्री ५ बापूभाई,


आपके पत्रके अन्तिम अनुच्छेदका उत्तर में 'नवजीवन' में दे रहा हूँ। उसमें अन्य प्रश्नोंका उत्तर नहीं देना चाहता।

ऋषि दयानन्दके चरित्रके प्रति किसी भी हिन्दूके मनमें आदरके सिवा और कोई भाव हो ही नहीं सकता। 'सत्यार्थप्रकाश' निराशाजनक है, इसके कारणकी खोजमें न पड़ना ही अच्छा है। महान् पुरुषोंके गुणोंका स्तवन करना चाहिए। उनमें जो अपूर्णता हो उसे देख लें; किन्तु भक्तजनोंको उसके कारणोंकी खोजमें नहीं जाना चाहिए।

  1. पत्रमें रेवाशंकरके देवलाली जानेकी जो चर्चा मिलती है उससे मालूम होता है कि यह पत्र १९२६ में लिखा गया था; देखिए “पत्र : रेवाशंकर ज० मेहताको”, २५-११-१९२६।
  2. एक ही जानवरकी मददसे कुँएसे पानी खींचनेके लिए मद्रासके कृषि कालेजके रामचन्द्रन द्वारा तैयार किया गया चरसा या कोस।
  3. रेवाशंकरका पुत्र।