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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

'सत्यार्थप्रकाश' से उद्धरण देनेका विचार मैंने जान-बूझकर छोड़ दिया है। जिनके लिए इन उद्धरणोंको देनेका विचार था वे मुझसे मिल गये थे। उन्हें मैंने ये उद्धरण दिखाये थे। अब अगर में उन्हें देता हूँ तो इससे उस महापुरुषकी निन्दा होती है, उनके गुण ढँक जाते हैं और इससे विवाद बढ़ सकता है। इसीलिए मैंने उन उद्धरणोंको नहीं दिया।

'आर्य' शब्दका उपयोग करनेमें कृत्रिमता देखता हूँ। 'हिन्दू' शब्दकी उत्पत्ति चाहे जैसे भी हुई हो लेकिन उस शब्दमें जिस अर्थका समावेश सहज ही हो जाता है वह अन्य किसी शब्दसे जोर-जबरदस्तीसे ही निकाला जा सकेगा।

एक श्लोकमें कहा गया है कि जन्मसे हम सब अधम हैं। मनुष्य द्विज तो संस्कारसे होता है। अन्य लोग जन्मपर जोर देते हैं। दोनों अपनी-अपनी दृष्टिसे सही हैं। जन्म पूर्व संस्कारका अनुसरण करता। नये संस्कार उसमें कुछ परिवर्तन करते हैं। हम जैसे जन्मे हों, लोगोंको अपनेको वैसा ही मानने देनेमें नम्रता है और शक्तिका संचय है।

प्रारब्ध अर्थात् जन्मसे पूर्व किये गये कर्मोंका फल। पुरुषार्थं अर्थात् उसमें आवश्यक परिवर्तन करनेका प्रयत्न। कितनी ही बार वे एक-दूसरेके विरोधी होते हैं और कितनी ही बार एकसाथ चलते हैं। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इनमें से कोई एक-दूसरेसे सदा बलवान् ही होता है। प्रारब्धको भुलाया नहीं जा सकता, पुरुषार्थको छोड़ा नहीं जा सकता। इसीलिए निष्काम कर्मका महत्त्व माना गया है।

मोहनदासके वन्देमातरम्

गुजराती पत्र (एस० एन० १९९६५) की माइक्रोफिल्मसे।

५५. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

कार्तिक शुक्ल १४, १९८३ [ १८ नवम्बर, १९२६ ]

भाई घनश्यामदास,

आपका पत्र मीला है। जिनीवाके बारेमें मैंने मेरा अभिप्राय आपके काशीजीके पतेपर कई दिनोंसे भेज दीया है। देवीप्रसादजीके खतपर से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आप वचनबद्ध हैं। यदि ऐसा हि है तो जाने न जानेका प्रश्न हि उपस्थित नहिं होता है। ऐसी हि हालत है तो जाना ही चाहिए।

आपका
मोहनदास

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६१३८) की फोटो नकलसे।

सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला