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५९. पत्र : बहरामजी खम्भाताको

शुक्रवार [ १९ नवम्बर, १९२६ ][१]

भाईश्री बहरामजी,

आपका पत्र मिला। जब आना चाहें तब आइएगा; मैं यहाँसे २ दिसम्बरको निकलनेवाला हूँ। आश्रम कबतक लौटूंगा, यह निश्चित नहीं है। आपको कोढ़ होनेका भय है, ऐसी चेतावनी देवदासने मुझे दी थी। यदि कोढ़ हो भी जाये तो भी क्या? इसमें चिन्ता करनेकी अथवा घबरानेकी कोई जरूरत नहीं है। कोढ़ ही हो तो भी मैं मानता हूँ कि आपमें इतना ज्ञान है कि आप आनन्दित रह सकते हैं। आप जल्दी आ जायेंगे तो हम इसके बारेमें बात करेंगे।

श्रीमती एडीकी पुस्तक सामान्य है। उसमें नया कुछ नहीं है। उनकी भाषामें वैचित्र्य है। उस महिलामें, सम्भव है कोई शक्ति हो, लेकिन मुझे लगा कि उसने अपने ज्ञानका दुरुपयोग किया है। दुःख मिटानेका उपाय दुःख सहन करनेमें ही है। दुःख मिटानेके लिए मनुष्यको आध्यात्मिक शक्तिका व्यय कदापि नहीं करना चाहिए। ईसाने दुखियोंके दुःख-दर्द दूर किये; उसका अर्थ यह नहीं कि सबको अपने दुःख-दर्द आध्यात्मिक शक्तिसे दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिए। यह शरीर नाशवान है, अतः उसके दुःखदर्द मिटानेके लिए जो उपाय किये जायें वे भी शारीरिक ही होने चाहिए।

इसलिए ईश्वरके प्रति रोगीकी प्रार्थना ऐसी होनी चाहिए:

"हे ईश्वर। मेरा यह रोग मुझसे जाने-अनजाने में हुए पापोंका परिणाम है। मुझे तू पापसे मुक्त कर और इस दुःखको सहन करनेकी शक्ति दे।"

यदि रोगी ऐसा मानता है कि उसे रोग नहीं है तो यह एक प्रकारकी मूर्छा है। रोगी यह जानते हुए भी कि वह रोगी है निर्लेप रहे, इसीमें पुरुषार्थ है। रोगीको चाहिए कि वह अपनी सत्ताका विश्लेषण करे, आत्मा और शरीरके भेदको पहचाने और दोनोंके सम्बन्धको समझकर मोक्षके रहस्यको समझे।

मेरी तो आपको यही सलाह है कि आप 'क्रिश्चियन साइन्स' को छोड़ दें। आप अपनी व्याधिका जो भी सामान्य इलाज करना चाहें निःसंकोच करें या फिर शान्त रहें, ईश्वरका अवलम्ब लेकर बैठ जायें। मध्यम मार्ग यही कहता है। निर्दोष इलाज करें और सहनशीलताकी शक्तिका विकास करें।

इसमें आपको मुझे कहने-जैसी कोई बात लगे तो कहिएगा। आपने जितने ध्यानसे श्रीमती एडीकी पुस्तक पढ़ी है उतने ध्यानसे मैंने नहीं पढ़ी है। मैंने तो उसे ऊपर-

  1. महादेव देसाईने २१ नवम्बरको बहरामजी खम्भाताको पत्र लिखा था और जैसा कि मालूम होता है, इस पत्रको ही ध्यानमें रखकर उनसे पूछा था कि क्या आपको बापूका 'क्रिश्चियन साइन्स' से सम्बन्धित पत्र मिला है? इसलिए लगता है कि यह पत्र उससे पहलेके शुक्रवार अर्थात् १९ नवम्बर को लिखा गया था।