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५९. राष्ट्रभाषा

मैंने जो सीधा-सादा अनुच्छेद सार्वजनिक सभाओंमें अंग्रेजी बोलनेकी जिस बुरी आदत के बारेमें लिखा था और सौभाग्यसे जो आदत दिनपर-दिन कम होती जा रही है——उसके उत्तरमें एक पत्रलेखक लिखते हैं:[१]

२८ जनवरीके 'हिन्दू' में आपके 'यंग इंडिया' में छपे लेखको[२] पूराका-पूरा उद्धृत किया गया है, जिसमें आपने यह सुझाव रखा है कि आपको दक्षिण भारतके प्रस्तावित दौरेमें जो भी मानपत्र दिये जायें, वे सब वहाँकी स्थानीय भाषामें होने चाहिए, और उनको आपने यह भी सुझाव दिया है कि हिन्दी भावान्तर आपकी सहूलियतके लिए आपको दे दिया जाये। मैं यह भी देखता हूँ कि आपका ख्याल यह है कि अब वह समय आ गया है जब दक्षिण भारतमें बड़ी सार्वजनिक सभाओंमें अंग्रेजीका प्रयोग बन्द कर देना चाहिए। आपके मतानुसार तो अंग्रेजी जाननेवाले नेता ही हिन्दी न सीखनेका हठ करके जनताके बीच हमारे कामकी पर्याप्त प्रगतिमें बाधा डाल रहे हैं। लेकिन सच बात तो यह लगती है कि अगर यह अंग्रेजी भाषा न होती तो भारतमें जैसा सक्रिय राजनीतिक जीवन आज है, वह न होता।...

जैसा कि आप कहते हैं, खान-मजदूरोंके बीच खड़े होकर अंग्रेजीमें व्याख्यान देना उनका अपमान करना है, उसी प्रकार मेरा मत है कि जहाँ देशके भिन्न-भिन्न भागोंसे श्रोतागण एकत्रित हुए हों, वहाँ अंग्रेजीको छोड़कर अन्य किसी भाषाका प्रयोग करना उनका अपमान करना है। आपको याद होगा कि इस साल कांग्रेस अधिवेशनके अध्यक्षसे[३] पहले हिन्दीमें बोलनके लिए कहा गया था। किन्तु उन्होंने अपने असाधारण साहस और उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण असाधारण चातुर्यसे उस अत्यन्त असमंजसपूर्ण स्थितिको सँभाल लिया। यदि सभापति महोदय अपनी देशी भाषामें बोलते, तो उनका भाषण कितने लोग समझ पाते? अथवा एकत्रित प्रतिनिधियोंमें से कितने उनका पूरा भाषण सुननेके लिए बैठे रहते? इसलिए जबतक हिन्दुस्तान और बर्माके लिए उपयुक्त, सबकी सहमतिसे एक सामान्य हिन्दुस्तानी भाषा निश्चित नहीं होती, तबतक भारतीय लोगोंमें पारस्परिक व्यवहारका माध्यम अंग्रेजी भाषा ही रहनी चाहिए और रहेगी। इसलिए जबतक सारे देशके लिए एक सर्वसामान्य भाषा विकसित नहीं हो जाती, तबतक आपकी स्थितिवाले नेताको अंग्रेजी भाषाके प्रयोगका

  1. केवल अंशतः उद्धृत।
  2. देखिए खण्ड ३२, पृष्ठ ५८१-८२।
  3. एस॰ श्रीनिवास आयंगार।