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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विरोध नहीं करना चाहिए और लोगोंसे एक बिलकुल भिन्न भाषा पढ़नेके लिए कहकर उनकी वर्तमान कठिनाइयोंमें वृद्धि नहीं करनी चाहिए।...

आपने अपने लेखमें कहा है कि अगर माध्यम अंग्रेजी रखा जायेगा तो जनसाधारणसे सम्पर्क करनेमें कठिनाई होगी। मैं इस सम्बन्धमें आपसे बिलकुल सहमत हूँ। लेकिन, पहले जनसाधारणसे सम्पर्क उनके अपने तथा उनके ही बीच रहनेवाले लोगोंको करना चाहिए। यह तो ग्रहीत ही है कि उनसे सम्पर्क करते समय [ये लोग] अपनी ही भाषाका प्रयोग करेंगे।...

मैं इस पत्रको यहाँ इसलिए प्रकाशित कर रहा हूँ कि यह एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसपर विचार करना जरूरी है। पत्र लिखनेवालेने अपने आलसीपनका समर्थन करनेकी अपनी उत्कट अभिलाषामें कुछ मूलभूत तथ्योंको भुला दिया है, क्योंकि उनकी इस मनोवृत्तिका किसी दूसरी तरहसे चित्रण कर सकना और उसे कोई विशेष नाम दे पाना कठिन है। मूलभूत तथ्य ये हैं: देशवासियोंमें से मुश्किलसे एक फीसदी लोग अंग्रेजी भाषा जानते हैं। सर्वसाधारण जनता उसे कभी नहीं सीख सकती, और हमको सभी राजनीतिक मामलोंमें रोज-ब-रोज विचारोंके आदान-प्रदानके लिए सर्वसाधारण जनतासे अधिकाधिक सम्पर्कमें आना पड़ेगा। कांग्रेसमें आनेवाले उन प्रतिनिधियों तथा दर्शकोंकी संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जाती है, जिनमें से अधिकांश अंग्रेजी नहीं जानते और न अंग्रेजी समझते हैं और जब यह कांग्रेस पूरी तौरपर एक जनतान्त्रिक संस्था बन जायेगी और उसके प्रतिनिधि मेहतर, चमार, किसान, धोबी, दर्जी इत्यादि होंगे, तब उसमें अंग्रेजी समझनेवाले लोग बहुत ही कम हो जायेंगे। आज जब कि मुश्किलसे एक फीसदी लोग अंग्रेजी भाषाका ज्ञान रखते हैं, भारतकी आबादीके ६० फीसदीसे अधिक लोग मामूली ग्रामीण हिन्दुस्तानी भाषा समझ सकते हैं। किसी भी भारतवासीके लिए अंग्रेजीकी अपेक्षा किसी भी हालतमें हिन्दुस्तानी सीखना बहुत ही ज्यादा आसान है। ये तथ्य हैं, लेकिन पत्रलेखकने इनकी उपेक्षा कर दी है।

इसके अतिरिक्त अंग्रेजीको कांग्रेसके कामकाजकी अधिकृत भाषा बनानेकी धुनमें पत्रलेखक उस आन्दोलनको भूल गये जो कांग्रेसमें उसके प्रादुर्भाव कालसे ही हिन्दुस्तानीको अधिक मान्यता प्राप्त कराने और जनसामान्यका माध्यम बनानेके पक्षमें जारी है और उन्होंने यह भी भुला दिया है कि कांग्रेसके समक्ष यह प्रस्ताव भी है। कि हिन्दुस्तानीको राष्ट्रभाषा बना दिया जाये। पत्रलेखकका शायद यह खयाल है कि मैं अंग्रेजी पढ़नातक बुरा बताता हूँ, जब कि यह बात मैंने कभी नहीं कही। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि अंग्रेजी जाननेवाले हिन्दुस्तानियोंने देशकी बड़ी भारी सेवा की है, लेकिन दुर्भाग्यसे, इस बातसे भी तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि अब आगेकी तरक्कीमें हम अंग्रेजी बोलनेवाले भारतीय ही इसलिए बाधा डाल रहे हैं कि हम सर्वसाधारणकी भाषाको सीखने तथा उनके बीचमें उन तरीकोंसे, जो उनके लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त हैं, काम करनेसे इनकार करते हैं। लेखकने डॉ॰ चैनका जो उदाहरण दिया है, वह बेमौका है। मुझे यह नहीं मालूम