पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/१४

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आठ " मेल नहीं खाता, वह धर्म नहीं है। " (पृष्ठ ४२१) इसी सन्दर्भमें गांधीजीने प्रत्येक युगमें समाजके विचारों और जीवनमें परिवर्तनकी आवश्यकतापर जोर दिया और हमारी भयंकर मानसिक जड़ता तथा सामाजिक गतिरोध और सिद्धान्तोंको आँख मूंदकर अपना लेनेकी प्रवृत्तिकी आलोचना की। स्वदेशी विचार तकको बिना सोचे- समझे पकड़कर बैठ जाना उन्हें पसन्द नहीं था। १. अगर हम कपड़ा सीनेकी सुई गांवमें न बना सकते हों और आस्ट्रियाकी बनी सुई सस्ती मिलती हो, तो उसके प्रति हमारे मनमें कोई विरोध-भाव नहीं होना चाहिए। मैं अच्छी और अपनाई जा सकनेवाली चीज लेनेमें कोई दोष नहीं देखता। . भले ही वह चीज बाहरकी ही क्यों न हो।" (पृष्ठ ३८०) गांधीजी किसी भी प्रकारकी कट्टरताके खिलाफ थे, यह बात सतीशचन्द्र दासगुप्तको लिखे गये एक पत्रसे भी स्पष्ट होती है, जिसमें उन्होंने सतीशबाबूके बिगड़ते हुए स्वास्थ्यको देखते हुए उन्हें पुन: मांसाहार प्रारम्भ कर देनेकी सलाह दी थी। (पृष्ठ ३६१-६२) व्यक्तिको आदर्श और उपलब्धिके बीच थोड़ी-बहुत गुंजाइश तो छोड़नी ही पड़ती है। बकरीका दूध भी तो आखिरकार पशुसे प्राप्त होनेवाला खाद्य पदार्थ है। इसे लेना वे एक कमजोरी मानते थे; (पृष्ठ २८०) किन्तु वे यह भी कहते थे कि आदर्शसे इस प्रकार हटनेकी बात अपवादस्वरूप ही होनी चाहिए, नियमस्वरूप नहीं। मीराबहनके नाम पत्रमें उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। "व्रतोंके बारेमें नियम यह है कि जब शंका हो, तब अपने विपक्षमें पड़नेवाला अर्थ लगाओ अर्थात् अपने ऊपर और अधिक प्रतिबन्ध रखो।" (पृष्ठ २९८) यदि कोई अपने मान्य-धर्मके अनुसार आचरण करना चाहता है, तो केवल उस विषयमें बातचीत करना या उसका उपदेश करना पर्याप्त नहीं है। उसके लिए आवश्यक है कि हम निरन्तर आत्मनिरीक्षण करते रहें, अपनी असफलताओंको देखते, समझते और प्रगट करते रहें-- इसके बिना निश्चित आदर्शोंको प्राप्त करना सम्भव नहीं है। प्राणपणसे प्रयत्न करना ही उनतक पहुँचनेका मार्ग है। आदमी एक विकास- शील प्राणी है। वह अपनी सत्ताको तभी चरितार्थ कर सकता है जब वह अपनी हृदयगत शक्तियोंका नित्य प्रस्फुटन करता चला जाये। "मनुष्यको सच्चा मनुष्य बननेके लिए अपना संस्कार करना चाहिए । हिन्दू इस संस्कारको द्विज बनना कहते हैं और ईसाई इसीको दुबारा पैदा होना कहते हैं । " (पृष्ठ २६७) डा० मुंजेने हिन्दू धर्मके विषयमें शास्त्रोंका शाब्दिक अर्थ लेकर जो रूप समझा था, उसे उन्होंने 'विकृत' कहा। गांधीजी कहते हैं: "मैं बड़ी नम्रतासे यह दावा करता हूँ कि मैंने सदा हिन्दू धर्मका पालन किया है।" (पृष्ठ ३४८) " धर्म किन्हीं बाहरी जमी-जमाई मान्यताओं अथवा निश्चित विधि-निषेधोंसे प्राप्त होनेवाली वस्तु नहीं है; वह तो हमारे अन्तरका एक अनुक्षण होनेवाला विकास है। "वेद कागजपर लिखे हुए अक्षरोंका नाम नहीं है।" (पृष्ठ ९९-१००) जब हम अपने ज्ञानके अनुसार आचरण करते हैं, तभी हममें ज्ञानके अंकुर फूटते हैं। "बगैर अमलके अध्ययन निरर्थक हो जाता है और वह मनुष्यमें घमंड पैदा करता है। इसलिए Gandhi Heritage Portal