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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसे कानूनोंकी स्वेच्छापूर्वक पाबन्दी करना नहीं जानते, जिन्हें कष्टप्रद तो माना जा सकता है, पर अनीतियुक्त नहीं। ज्योंही मुझे यह बात मालूम हुई, मैंने अपना कदम पीछे हटा लिया। इसी प्रकारकी निर्णय सम्बन्धी एक और भूल मैंने उस पत्रको भेजनेमें की थी जिसे बारडोलीकी 'आखिरी चेतावनी'[१] कहा गया था। मैंने तब यह विश्वास कर लिया था कि देश अर्थात् जनता आन्दोलनसे जाग्रत और प्रभावित हो गई है और अहिंसाकी उपयोगिता समझ गई है। पर उस चेतावनीको भेजने के बाद चौबीस घंटेके अन्दर ही मुझे अपनी भूल मालूम हो गई, और फलतः मैंने तुरन्त अपना कदम पीछे हटा लिया। और चूंकि ऐसे हर मौकेपर मैंने अपना कदम पीछे हटा लिया है, कभी भी कोई स्थायी नुकसान नहीं हुआ। इसके विपरीत इससे अहिंसाका मूल सिद्धान्त पहलेकी अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट रूपसे व्यक्त हो गया और देशको किसी भी प्रकारका नुकसान हमेशाके लिए नहीं हो सका।

लेकिन मुझे तो इस बातका कुछ पता नहीं है कि किन्हीं खास परिस्थितियोंमें, जिनका उल्लेख मैंने अपने लेखोंमें[२] स्पष्ट रूपसे किया है, कुछ खतरनाक जानवरोंको मारना जरूरी होनेके विषय में अब मैंने अपने मतको बदल दिया हो । जहाँतक मैं जानता हूँ, मैंने उन लेखोंमें जो मत व्यक्त किया है, मैं उसपर कायम ही हूँ । परन्तु इसके मानी यह नहीं कि वह कभी बदला नहीं जा सकता। मैं यह दावा नहीं करता कि मुझे कोई ऐसा निर्देश या प्रेरणा मिलती है जो गलत हो ही नहीं सकती। जहाँतक मेरा अनुभव है किसी भी मनुष्यका यह दावा कि वह गलती कर ही नहीं सकता टिक नहीं सकता, क्योंकि हम देखते हैं कि वह प्रेरणा भी उसीको मिलती है जो राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे मुक्त हो । यदि कोई ऐसा दावा करे कि वह इन द्वन्द्वोंसे मुक्त हो गया है तो किसी विशेष अवसरपर यह निर्णय कर पाना भी कठिन होगा कि उसका दावा उचित है या नहीं, इसलिए यह दावा करना बहुत जोखिमका काम होता है कि गलती हो ही नहीं सकती। पर इसके मानी यह नहीं कि कोई हमें मार्गदर्शन निर्देशन ही नहीं मिला है। संसारके ऋषियोंके अनुभवोंका सार हमारे लिए सुलभ है और आगे भी सदैव सुलभ रहेगा। इसके अलावा मूल सत्य भी तो अनेक नहीं है; वह तो केवल एक ही है और वह है स्वयं 'सत्य' अथवा, दूसरे शब्दों में कहें तो 'अहिंसा' । अपूर्ण मानव, सत्य और प्रेमको पूर्ण रूपसे कभी नहीं जान पायेगा, क्योंकि सत्य या प्रेम असीम है। लेकिन हम अपने दिशा निर्देश भरके लिए जरूरी हदतक सत्यको जानते हैं। हाँ उसके व्यवहारमें हम भले ही गलती भी करेंगे और शायद कभी-कभी भयंकर गलती करेंगे। परन्तु मनुष्य तो अपना शासन आप करनेवाला प्राणी है। और स्वायत्त शासन में गलतियाँ करने और जितनी बार वे हों उतनी ही बार उन्हें सुधारनेकी सत्ता भी तो जरूर शामिल है। मैं नहीं जानता कि इस उत्तरसे मुझे पत्र लिखनेवाले महोदयको सन्तोष होगा कि नहीं। परन्तु उन्हें चाहे सन्तोष हो अथवा न हो, मुझमें इससे अधिक सन्तोषजनक उत्तर देनेकी शक्ति नहीं है।

  1. १. देखिए खण्ड २२, पृष्ठ ३१७-२०।
  2. २. " क्या यह जीवदया है ? " नामक लेखमालामें; देखिए खण्ड ३२ ।