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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और दूसरे घन्धोंके अभाव में भूखों ही क्यों न मरें ? मैंने ये थोड़ेसे विचार विदेशी कपड़े पहननेवालोंके सामने विचार करनेके लिए यहाँ दिये हैं। मगर ये भण्डार हम खादी कार्यकर्त्ताओंको क्या शिक्षा देते हैं? मेरी रायमें तो हम सचाईसे और योग्यतासे संगठन करके खादीकी माँग सभी जगह पैदा कर सकते हैं। बशर्ते कि :

(क) जो कार्यकर्त्ता खादी उत्पादनके काममें लगे हैं वे अधिक एकसार और मजबूत सूत कतवाने, कमसे-कम मिलके सूत जैसा अच्छा सूत कतवानेकी ओर ध्यान दें;

(ख) वे लोगोंकी रुचिको भी समझनेकी कोशिश करें, और भाँति-भांतिकी खादी बनवायें;

(ग) अन्य बातोंमें कुशलता दिखाकर खादीके दाम घटायें;

(घ) खादी बेचनेके काम में लगे हुए लोग लोगोंकी रुचिको और अधिक अच्छी तरहसे समझें और खादी बेचनेकी कला सीखें;

(ङ) खादी बनाने और बेचनेवाले दोनों ही समझ लें कि उन्हें कमसे कम दामपर अधिकसे-अधिक अच्छा माल देना होगा, और खादीको व्यापक आधारपर सफलतापूर्वक संगठित करनेके लिए आत्मत्यागकी शर्त अनिवार्य है।

मैं देखता हूँ कि निजी दूकानोंको मालिकोंका या कोई दूसरा नाम दे दिया जाता है। अधिक सुभीतेके लिए मैं सलाह दूंगा कि सब एक समान नाम, खादी भण्डार या वस्त्रालय रखें और उसके साथ कोष्ठकमें अ० भा० चरखा संघ, कांग्रेस या निजी, जैसा भी भण्डार हो; लिख दें । जहाँ एक ही जगह दो या अधिक भण्डार हों, वहाँ उनके नामके साथ नम्बर एक, नम्बर दो इत्यादि लगाया जाये। जबतक खादीका संगठन करना है और उसे पोषण देना है, और अधिकांश भण्डार अ० भा० चरखा संघकी ही मिलकियतमें हैं या उसके द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और उससे सम्बद्ध हैं, तबतक ऐसा करना वांछनीय है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २१-४-१९२७