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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


साथका पत्र काशीके पढ़ लेनेके बाद चाहो तो नीमू अथवा मणिको पहुँचा देना । हरएकको मैं अलगसे पत्र नहीं लिख रहा हूँ । चि० प्रभुदासको शीघ्र ही राणावाव भेज देना। मैं अच्छा हूँ ।

बापूके आशीर्वाद

[ पुनश्च : ]

भाई फूलचन्दजी जितना पैसा मांगें अपनी सुविधानुसार देते रहना । उनका पत्र इसके साथ भेज रहा हूँ ।

गुजराती (सी० डब्ल्यू० ९१२५) से ।
सौजन्य : छगनलाल गांधी

२६८. पत्र: मगनलाल गांधीको

[ २६ अप्रैल, १९२७ ][१]

चि० मगनलाल,

तुम्हारा पत्र मिला है। भुवरजीके विषय में तुम्हें जैसा ठीक लगे वैसा करना । तुम्हें इसका ध्यान तो होगा ही कि उनकी सीतलासहायके साथ बनती नहीं है। कार्य समितिकी टिप्पणी मिल गयी है। मैं चाहता हूँ कि सब सद्भावके साथ ठीक- ठीक निपट जाये। मैं तो अब जानमालकी रक्षाकी चिन्ता कर रहा हूँ । चौकीदार रखनेकी बात मुझे ठीक नहीं लगती । दूसरे कामोंके लिए बाहरसे आदमी वेतन देकर रखने की बात समझमें आती है । पर जिस प्रकार प्रार्थनाका काम हमें स्वयं करना है उसी प्रकार रक्षाका काम भी हम स्वयं ही करें तभी हमारा छुटकारा है। यदि हम ऐसा नहीं कर सके तो हमें सामान्य नीति मानकर चलना होगा। उससे हमारे सत्य और अहिंसाके प्रयोगको हानि पहुँचेगी। चौकीदार किसीको मारे, यह भी हमें ठीक नहीं लगेगा और मार खाये, यह भी ठीक नहीं लगेगा । मारना ही पड़े तो खुद मारें और खुद ही मार खायें। बालकों और स्त्रियों में भी हमें इसी शक्तिको विकसित करना है । इस घटनाका जो वर्णन मुझे भेजा गया है उसे बढ़ाकर देखें तो मालूम होगा कि [ इस नीतिके] परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं। अभी वाजी हाथसे नहीं गई है। उससे पहले ही हम अपना मार्ग धार्मिक वृत्तिसे सोच लें। 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' ने किले बनवाये और सिपाही रखे तो सिर्फ परिस्थितियोंसे बाध्य होकर। हम परिस्थितियोंकी अधीनता स्वीकार करेंगे या उन्हें अपने नियन्त्रणमें रखेंगे ? मुझे तो लगता है कि हमें पूरी रात जागते रहनेवाले साधकोंको तैयार करना चाहिए । उन्हें चोरोंको वशमें करनेवाली धार्मिक कलाओंकी खोज करनी होगी। भले वे रातभर जागें और फिर दिनमें आठ घंटे सोयें। खलासी ऐसा करते हैं, फिर भी उनका स्वास्थ्य

  1. आश्रम में चोरोंके आनेके उल्लेखसे; देखिए, “पत्र: आश्रमको बहनोंको”, २६-४-१९२७