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पत्र : मीराबहह्नको


आश्रम में चोरोंने उपद्रव मचा रखा है। यदि आश्रमकी जिम्मेदारी आपपर हो तो आप क्या करेंगे ? सोचकर जवाब दें ।

बापू

गुजराती (जी० एन० ३८४७) की फोटो-नकलसे ।

२७४. पत्र : मीराबहनको

दुबारा नहीं पढ़ा

२७ अप्रैल, १९२७

चि० मीरा,

तुम्हारा आह्लादपूर्ण पत्र मिला । अगर तुमने जो-कुछ लिखा है, उसके एक- एक शब्दकी तुम्हें प्रतीति हो जाये, तो तुम्हारा सारा दुःख भी दूर हो जाये और मेरी चिन्ता भी । हम सचमुच अपने कार्य के द्वारा और अपने कार्य में ही जीते हैं। अगर हम अपने नाशवान् शरीरोंका स्थायी साधनोंके तौरपर उपयोग करने के बजाय उनसे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं तो हम उन शरीरोंके साथ ही मिट जाते हैं। मैं जितना ही अधिक इसपर गौर करता हूँ और इसका अध्ययन करता हूँ, उतना ही मेरा यह खयाल पक्का होता जाता है कि वियोग और मृत्युका शोक शायद सबसे बड़ा भ्रम है। यह जान लेना ही कि यह भ्रम है, उससे मुक्त होना है। आत्मा न मरती है और न विलग होती है। लेकिन दुःखकी बात तो यह है कि यद्यपि हम अपने मित्रोंसे उनके भीतर रहनेवाली आत्माके कारण ही प्रेम करते हैं, फिर भी आत्मापर जो क्षणभंगुर शरीर रूपी आवरण रहता है उसके नष्ट होने पर हमें दुःख होता है। होना यह चाहिए कि सच्ची मित्रताका उपयोग पिण्ड द्वारा ब्रह्मको प्राप्त करने के लिए किया जाये। अभी तो ऐसा लगता है कि तुमने सत्यको देख लिया है। किन्तु वैसी स्थिति हमेशा ही बनी रहनी चाहिए।[१]

मैं नहीं जानता कि कृष्णानन्दजीने यह कैसे सोच लिया कि मैं वहाँ जूनमें आ रहा हूँ। मैंने तो पत्रमें शायद यही लिखा था कि मैं जितनी जल्दी सम्भव हो सके उतनी जल्दी आना चाहूँगा। मैंने तुम्हारी चेतावनी समझ ली है। यदि जूनमें आ सका तो जूनमें; जूनसे पहले रवाना हो सकूँगा इसकी गुंजाइश कम ही है ।

सस्नेह,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२२० ) से ।
सौजन्य : मीराबहन
  1. मीराबहनने इस सम्बन्ध में लिखा है “ मेरे मस्तिष्कने सत्यको तो समझ लिया था परन्तु इसके बाद भी कई वर्षोंतक मेरे हृदयने साथ नहीं दिया। "