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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उन्हें भी बुरी तरह पीटा। बेचारे अस्पृश्य रोते-चिल्लाते सहायताके लिए बुरी तरह भागे। पर किसी भी दुकानदारने उन्हें सहायता नहीं दी। पण्डालमें जो अस्पृश्य थे उन्हें कुछ स्पृश्योंने बाहर खुलेमें आकर लड़नेके लिए चिढ़ाया। पण्डालमें लगभग १,५०० अस्पृश्य थे । यदि वे सचमुच मैदानमें लड़ने आ जाते, तो वह एक बड़ा भयंकर काण्ड हो जाता और हिन्दू धर्म लांछित हो जाता । डा० अम्बेडकरने अपनी सलाहको यह कहकर उचित ठहराया कि बम्बई विधान परिषदमें यह प्रस्ताव पास हो चुका है और महाडकी नगरपालिका इस विषयमें अपना मत प्रकट कर चुकी है कि अस्पृश्य कानूनन सार्वजनिक तालाबों तथा कुओंसे पानी लेनेके अधिकारी हैं।


मैंने पत्रलेखकके पत्रमें से कई अंश, जिनमें विशेष तफसीलकी बातें दी हुई थीं छोड़ दिये हैं । परन्तु मुझे इस पत्रकी बातें सच्ची मालूम होती हैं और उनमें अत्युक्ति नहीं दिखाई देती । अतः यदि हम घटनाका ब्यौरा ठीक मान लें, तो इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि तथाकथित उच्च वर्गोंके लोगोंने ऐसा गैर-कानूनी बरताव किया है, जिसके लिए उन्हें [ अस्पृश्योंने] उत्तेजित नहीं किया था, क्योंकि स्मरण रहे कि अस्पृश्योंके तालाबपर पानी पी लेनेके कारण ही स्पृश्योंकी भीड़ मन्दिरमें इकट्ठी नहीं हुई थी, बल्कि उस झूठी अफवाहके कारण इकट्ठी हुई थी कि अस्पृश्य मन्दिरमें घुसना चाहते हैं। पर अविवेकके साथ-साथ विचारशीलताकी आशा ही नहीं की जा सकती। अस्पृश्यताको भावनाके पीछे कोई विवेक नहीं है। वह तो एक अमानुषिक प्रथा है, जो अब मिट रही है और कथित सनातनी हिन्दू इसे विशुद्ध पशुबलसे सहारा देनेका प्रयत्न कर रहे हैं। अत्यन्त उत्तेजनापूर्ण परिस्थितियों में तथाकथित अस्पृश्योंने जो इतने अनुकरणीय संयमसे काम लिया है इससे हम इस जटिल सवालको हल करने में एकदम और आगे बढ़ गये हैं। यदि वे इसका बदला लेते तो दोष किसका है यह बताना शायद कठिन होता । पर इस परिस्थितिमें तो सारा दोष स्पृश्योंका ही है । पशुबल अस्पृश्यताको कायम नहीं रख सकता। इससे तो लोकभावना उलटी अस्पृश्योंके पक्षमें हो जायेगी । यह इस बातका सूचक है कि कमसे-कम कुछ लोग तो ऐसे निकले, जिन्होंने बेचारे अस्पृश्योंका पक्ष लेकर उनकी रक्षा करनेका प्रयत्न किया। अच्छा होता महाडमें इससे कहीं अधिक लोग अस्पृश्योंके रक्षक होते। ऐसे मौकोंपर मूक सहानुभूति अधिक उपयोगी नहीं होती। प्रत्येक हिन्दूको, जो अस्पृश्यता निवारणको सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य समझता है, चाहिए कि वह ऐसे मौकोंपर खुलेआम दीन-दलितोंका पक्ष लेकर उनके प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करे और अपना सिर फुड़वा कर भी उन असहायों और दलितोंकी रक्षा करे।

डा० अम्बेडकरने जो अस्पृश्योंको तालावपर पानी पीने की सलाह देकर बम्बई विधान परिषद तथा महाड नगरपालिकाके प्रस्तावोंको कसौटीपर कसा उनका यह काम में समझता हूँ कि बिलकुल उचित ही था । हिन्दू महासभा जैसी संस्थाओंको,