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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

रँगाईका काम शुरू कर दिया गया है। इस सत्रम प्रेम महाविद्यालयकी मार्फत लगभग २,००० रुपये मूल्यको खादी बेची गई और मथुरा तथा आसपास के लोग यह समझते हैं कि प्रेम महाविद्यालय शुद्ध खादीका गढ़ है। दो दर्जी महाविद्यालयमें महीनोंसे केवल सिलाईका काम करनेमें लगे हुए हैं। और उनका काम अभी जारी रहेगा।

मैं आचार्य गिडवानी, उनके अध्यापक-मण्डल और छात्रोंको बधाई देता हूँ । उन्होंने जो काम किया है उससे मुझे दिल्लीके जामिया मिलिया द्वारा किये गये ऐसे ही कामकी याद आती है, जिसका विवरण इन स्तम्भोंमें छप चुका है। इन दो तथा अन्य अनेक उदाहरणोंसे यह प्रकट होता है कि जहाँ सचाई और श्रद्धा होती है वहां छात्रोंको खादी कार्यके लिए प्रेरित करने में कोई कठिनाई नहीं होती। मैंने यह बार-बार कहा है कि यदि अध्यापकोंमें श्रद्धा हो और इसके साथ ही उनमें ज्ञान और धैर्य हो तो स्कूलोंमें खादी और हाथ कताईको लोकप्रिय बना सकना अत्यन्त आसान है। मुझे ऐसे किसी स्कूलका नाम नहीं मालूम जिसमें ये तीनों शर्ते पूरी की गई हों और फिर भी सफलता न मिली हो ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, २८-४-१९२७

२८१. पत्र: मु० अ० अन्सारीको

नन्दी हिल्स
२८ अप्रैल, १९२७

प्रिय डा० अन्सारी,

आपका पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। लेकिन आपको यह तो याद ही होगा कि आपको डाक्टरी जाँच करनेके लिए मुझसे भेंट करनी है। परन्तु यह भेंट व्यावसायिक नहीं होगी। क्योंकि भेंटका वायदा करनेके बाद अब, जबकि आप दो बार यूरोप हो आये हैं, व्यावसायिक भेंटका मतलब होगा कि ज्यादा नहीं तो कमसे-कम आपको प्रतिदिन १,००० रु० देने होंगे। क्या ऐसा नहीं समझा जाता कि हर बार यूरोपकी यात्रासे डाक्टरों और वकीलोंकी योग्यता बढ़ जाती है ? और इसलिए उनकी दैनिक फीस भी बढ़ जाती है ? इस दौरान में आपकी हिदायतोंका ध्यान रखूंगा। और जबतक मैं पागलपनकी हालततक न पहुँच जाऊँ में अपने मनको सोचने नहीं दूंगा । यदि आप कहें कि मैं अपने विचारोंको लिखित रूपमें प्रस्तुत न करूं, या वार्तालापके रूपमें वाणीसे भी अभिव्यक्त न करूँ, तो मैं इतना कुछ तो समझ सकता हूँ। परन्तु में नहीं समझता कि हिन्दू और मुसलमान जो इस तरह काम कर रहे हैं, जिसके कारण मुझे बहुत जोर देकर सोचना पड़ता है, उसे कैसे रोक सकता हूँ । में यह भी नहीं जानता कि लाखों लोगोंकी भुखमरी जो बढ़ रही है, उसे कैसे रोकूं,