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२८३. पत्र : मीराबहनको

दुबारा नहीं पढ़ा

२८/२९ अप्रैल, १९२७

चि० मीरा,

तुम्हारा सबसे बादवाला पत्र और भी आह्लादपूर्ण है । मुझे आशा है कि तुम्हारी यही मनःस्थिति बरकरार रहेगी। मैं तो आज तुम्हें हिन्दीमें एक कार्ड भेज ही रहा था कि डाक निकल गई। यह पत्र डाक मिलने के बाद लेकिन डाक निकल जानेपर लिखा गया है, क्योंकि जब डाक चली जाती है, तब डाक आती है।

मैंने यहाँ खुराकमें थोड़ी-सी तबदीली कर दी है। उसे एक मशहूर डाक्टरने, जो पास ही रहते हैं, ठीक बताया । मैं अब कच्चा दूध लेता हूँ और कभी-कभी उसमें थोड़ा-सा नीमकी पत्तियोंका रस मिला लेता हूँ और फिलहाल चपातियाँ और तरकारियाँ छोड़ दी हैं; यदि जरूत हुई तो इन दोनों चीजोंको फिर लेने लगूंगा । बीमार पड़नेके बाद अब पहली बार रक्तचापमें कमी दिखाई दी है। मुझे अपनी तबीयत कुल मिलाकर बेहतर लगती है।

शेष महादेव द्वारा ।

सस्नेह,

बापू

२९ की सुबह

तुम रोलाँकी पुस्तकका अनुवाद अवश्य करो; किन्तु यदि अबतक तुम्हारा चित्त शान्त हो गया हो तभी करो। तुम्हारा चित्तकी आन्तरिक शान्तिको स्थायी रखना किसी भी अन्य कार्यसे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। तुम्हें वहाँके लोग अच्छे लगते हैं। इसलिए तुम उन्हें बहुत कुछ सिखा सकती हो और उनसे बहुत कुछ सीख सकती हो। मैं चाहता हूँ कि तुम वहाँसे तभी हटो जब वहाँ अपना पूर्ण विकास कर लो। इस अवस्थामें मेरा सुझाव यह है कि तुम अनुवादके कार्य के लिए नियमित रूपसे एक घंटा अलग रख लो और उस कामको जितना बढ़ा सको उतना बढ़ाओ । हो सकता है कि तबतक प्रभु कोई ऐसा मार्ग निकाल दें कि मैं वहाँ अपेक्षित समयतक रह सकूं और उसके तथ्योंमें महादेवकी सलाहसे संशोधन किया जा सके। यदि मैं वहाँ जल्दी न आ सकूँ तो ऐसा भी हो सकता है कि जब तुम्हें ऐसा लगे कि तुम्हारा काम पूरा हो गया है, तुम स्वयं, जहाँ में होऊँ वहाँ आ जाओ। लेकिन अपना कर्त्तव्य तुम्हें ही निश्चित करना होगा। मैं कह चुका हूँ कि तुम जब चाहो तब मेरे पास आनेके लिए स्वतन्त्र हो । मेरा केवल इतना ही कहना है कि तुम अनुवादको, जो काम तुम वहाँ कर रही हो, उससे अधिक आवश्यक न समझो । यदि किसी व्यक्तिका