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पत्र : सीताराम पुरुषोत्तम पटवर्धनको

बातका विचार न करके तुम क्या चाहती हो सो लिखना। मेरे पत्रमें लिखी जो बातें तुम्हें पसन्द न आयें उनके बारेमें निःसंकोच होकर लिखना । जबर्दस्ती तो कुछ कराया नहीं जा सकता; तुम्हारी इच्छासे जो होगा वही ठीक हुआ कहा जा सकता है।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।

सौजन्य : नारायण देसाई

२८८. पत्र : सीताराम पुरुषोत्तम पटवर्धनको [१]

३० अप्रैल, १९२७

मैंने भैंसके विषय में जो लिखा [२] था उसमें भैंसका नाश करने की बात कहीं नहीं थी । बल्कि उसके संवर्धनका प्रयत्न करने की आवश्यकता बताई थी। जहाँ-जहाँ वास्तविक जरूरत होगी वहाँ उसकी रक्षा भी आसानीसे हो जायेगी । मेरे कहनेका अर्थ यह था कि हमारा धर्म सिर्फ गोरक्षा ही हो सकता है दूसरे जानवरोंके प्रति दयाकी बात उसीमें आ जाती है। किन्तु उनका नाश तो नहीं हो रहा है । इसलिए उन्हें नष्ट होने से बचाने के लिए भगीरथ प्रयत्न करने की आवश्यकताका सवाल नहीं उठता। और यदि हम गायकी रक्षा करनेकी सामर्थ्य अर्जित कर लेते हैं तो दूसरोंके लिए जो कुछ करना जरूरी है वह अपने आप हो जायेगा । मैंने जो भी लिखा उसमें मेरा आशय भैंसकी अगवणना करनेका नहीं है। मैं केवल अपनी शक्तिको सीमा बता रहा हूँ। गाँवोंमें भी चर्मालय व दुग्धालय आदि होने चाहिए। यानी गाँवोंमें भी चमड़ा उतारनेकी क्रियाका तरीका अधिक सभ्य होना चाहिए। गायके संवर्धनके अच्छे-अच्छे प्रयोग किये जाने चाहिए। लोगोंको समझना चाहिए कि दूध किस प्रकार बढ़ाया जा सकता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि इस समय हमें यह जानकारी गांवों में शहरोंसे ही ले जानी पड़ेगी। अभी तो हालत यह है कि हमें इस शास्त्रका कोई ज्ञान ही नहीं है। मतलब यह कि जबतक पश्चिमसे इस शास्त्रको सीखकर आये लोग यहाँको परिस्थितिको समझकर अपने ज्ञानको ऐसा नया रूप नहीं देते जो हमारे उपयोगका हो, तबतक हम कुछ नहीं कर सकते। इसलिए फिलहाल तो हमें प्रयोग ही करने हैं । तात्पर्य यह है कि आज मुख्यतया अज्ञानी मनुष्य मात्र आजीविकाकी दृष्टिसे जो धन्धा करते हैं उसे जैसा कताई-बुनाईके सम्बन्धमें हुआ है, उसी तरह शिक्षित लोग देश-हितके लिए अपने हाथ में ले लें । आश्रममें इसका आरम्भ भी किया जा चुका है।

[ गुजराती से ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।

सौजन्य : नारायण देसाई

  1. उर्फ अप्पा
  2. देखिए “गोरक्षाकी शत " ३१-३-१९२७ ।