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पत्र : मीराबहनको

से १६० के बीच रक्तचाप होना साधारण बात है। पिछले तीन दिनसे में तीस-तीस मिनट करके रोज दो बार एक मील से ज्यादा घूम लेता हूँ। मेरा इतना घूमना अम्बोलीसे अधिक है। इसलिए अब मेरी तन्दुरुस्ती के बारेमें चिन्ताकी कोई बात नहीं है। अब नन्दी छोड़नेका कोई प्रश्न नहीं हो सकता। अगर आ सकती हो तो पहले जैसी ताकत जबतक न आ जाये, तबतक या जबतक नन्दीमें रहनेका मौसम खत्म न हो जाये, जो जुलाईके करीब खत्म होता है, तबतक नन्दी छोड़नेका विचार करना मूर्खतापूर्ण होगा।

तुम्हारे तारसे मैं देखता हूँ कि तुम्हारे उस पहलेवाले पत्रमें जो शान्ति तुम्हें महसूस होती जान पड़ी थी, उस पत्रके बावजूद घड़ोकी सुई मानो फिर पीछे सरक गई है और तुम्हारा चित्त फिर अशान्त हो रहा है। इससे मुझे आश्चर्य नहीं होता । अगर हमारी शान्ति चिरस्थायी हो जाये, तो फिर और कुछ करनेको न रहे। दुर्भाग्य या सौभाग्यसे सच्ची शान्ति पा सकने से पूर्व हमें बहुतसे उतार-चढ़ाव पार करने पड़ते हैं।

इसलिए मैंने तुम्हें इस बात की स्वतन्त्रता दे दी है कि जैसा चाहो वैसा करो । बेशक यह बेहतर होगा कि यदि तुम अपना चित्त शान्त रख सको तो वहीं रहो। लेकिन यह भी उतना ही निश्चित है कि अगर तुम्हारा चित्त शान्त न रह सके तो तुम जरूर चली आओ । केवल इतना ही कहना है कि कोई भी फैसला करते समय मेरे स्वास्थ्यका खयाल न करना । कारण कि अगर तुम यहाँ आई तो मैं तुम्हें वैसा ही मिलूंगा जैसा तुमने मुझे काँगड़ीमें देखा था। तबमें और अबमें मुझमें तुम्हें बहुत कम फर्क दिखाई देगा। इसलिए अपने मनमें गहराईसे आत्म-चिन्तन करके देख सको तो देखो कि तुम किस मनःस्थितिमें हो और फिर वैसा ही करो । इसकी परवाह न करो कि मैं तुमसे क्या करवाना चाहता हूँ, या दूसरी तरह कहूँ तो मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी अन्तरात्मा जैसा कहे वैसा तुम करो ।

सस्नेह,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२२४) से ।
सौजन्य : मीराबहन


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