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गाय बनाम भैंस

कार्य में ही दीयी जाय । अभ्यास दो प्रकारसे होता है। एक तो संदर्भ ग्रंथ के पठनसे और मननसे, दूसरा पारमार्थिक कार्य करने के अभ्याससे । वैराग्य तो उसी चीझका नाम है जिससे हमारा सांसारिक वस्तु प्रत्ये राग कम होता है और पारमार्थिक वस्तु प्रत्ये राग बढ़ता । वैराग्य विचारसे प्राप्त होता है, अभ्यास परिश्रमसे । इसी कारण अभ्यासको तपश्चर्या भी कहें ।

निखिलका हृदय अब तक दुर्बल रहता है उसका क्या कारण डाक्टर लोग बताते हैं ।

बापूके आशीर्वाद

मल (जी० एन० १६४९) की फोटो-नकल से ।

३१०. गाय बनाम भैंस

एक कोंकणवासी गो-सेवक लिखते हैं :

"गोरक्षा की शर्तें " [१] शीर्षक लेखमें घाटकोपर गौशालाको चर्चा करते हुए आपने लिखा था कि गोरक्षामें हमें भैंस और भैंसेकी रक्षा नहीं मिलानी चाहिए। मेरा खयाल है कि आपके इस सुझावके मूलमें यह बात रही होगी। कि खेती में भैंसेका उपयोग नहीं होता । परन्तु कोंकणमें तो भैंसे भी बहुत काम देते हैं। वे नगरपालिकाओंको मैलेकी गाड़ियाँ खींचते हैं; पानीके रहट भी प्रायः उन्हींसे चलाये जाते हैं, और वे हलों में भी जोते जाते हैं। खासकर जब पानी बहुत बरस रहा हो तथा जब खेतोंमें बहुत कीचड़ हो जाये तब बैल काम नहीं दे सकता। और कोंकणमें तो खेतीका अधिकांश काम तभी किया जाता है जब पानी बहुत बरस रहा होता है। इसलिए कोंकणमें भैंसा उपयोगी है।

यहाँकी गायें जहाँ सामान्यतः आधा सेर दूध देती हैं, वहाँ भैंसें २।। सेरसे पाँच सेरतक दूध देती हैं। गायें प्रयत्न करनेपर अधिक दूध दे सकती हैं; और उससे मक्खन भी अधिक निकल सकता है, किन्तु इस दृष्टि से भैंसोंकी उपयोगिता तो स्पष्ट हो है। इसलिए क्या कोंकण में गोरक्षाके साथ-साथ भैंसकी रक्षा भी कर्त्तव्य नहीं है ? यदि इसमें दोष हो तो बतायें ।

हाँ, घाटके प्रदेशकी बात जुदा है। वहाँ गर्मी अधिक होती है, खेत बड़े- बड़े होते हैं और पानी कम है। इसलिए वहाँ भैंसे काम नहीं दे सकते (क्योंकि उनके नहाने और तैरनेके लिए पानी आवश्यक होता है) परन्तु कोंकण उनके लिए उपयुक्त क्षेत्र है।

  1. देखिए पृष्ठ २१३-१५ ।