पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/३५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१७
गाय बनाम भैंस

होता है। केवल अपने लाभकी बात सोचने और दूसरोंके हिताहितकी परवाह न करने की इस वृत्ति के कारण ही हमारा अर्थात् देशका और धर्मका क्षय हुआ है। हम एक शक्तिशाली राष्ट्र तभी हो सकते हैं जब हम देशके लाभमें ही अपना लाभ माननेकी वृत्तिको पुष्ट करें। अगर हम इतना भी नहीं कर सकते तो धर्मकी बात करना व्यर्थ है। राष्ट्रीय भावना में देशका लाभ मुख्य है और धर्मवृत्ति में सारे संसारका -चींटीसे लेकर सारे प्राणि जगतका लाभ मुख्य है।

यह पढ़ने के बाद पाठक इस अंकमें अन्यत्र दी हुई तालिकाके आँकड़ोंपर विचार करें ।

यह तालिका सत्याग्रहाश्रमके जानवरोंके खर्च और उनसे होनेवाली आयकी है। उसमें दिये गये नाम गायोंके है। तालिका भेजते हुए व्यवस्थापक लिखते हैं :

ऐसी कोई पक्की बात नहीं है कि गायकी अपेक्षा भैंससे अधिक आय होती ही है। इस तालिकामें दो हुई कितनी ही गायोंसे लाभ मिलता है। कुछ ऐसी हैं जो जितना खाती हैं उतना हो देती हैं और कुछसे हानि है। जिनसे आर्थिक हानि हो रही है उन गायोंसे बच्चे लेना अब बन्द कर देना पड़ेगा। उनसे कोई हल्का-सा काम लेना शुरू करनेका विचार है । एक वन्ध्या गायसे तो काम लेना शुरू भी कर दिया गया है। भैंसा बहुत कम कीमत में बिकता है। किन्तु कई बछड़े तो सौ-सौ रुपये कीमतके निकले हैं। इनमें से दो-तीन तो बैलगाड़ी में तेज दौड़ते हैं। फलस्वरूप अब हमें घोड़ा-गाड़ीकी जरूरत नहीं रह गई है।

आश्रम में तो अब यह निश्चय कर लिया गया है कि भैंसे न बढ़ाई जायें । इस तालिकाका उद्देश्य यह बताना नहीं है कि इससे कोई बड़े-बड़े अनुमान निकाले जा सकते हैं, बल्कि यह बताना है कि यदि गायको अच्छी खुराक दी जाये तो वह भैंसके बराबर दूध दे सकती है और उसपर खर्च भी ज्यादा नहीं आता। फिर यह तो स्वयंसिद्ध है कि बछड़ेका उपयोग भैंसेसे कहीं अधिक है।

आश्रम में जो अन्य अनेक प्रयोग किये जा रहे हैं, मैं उनको समय-समयपर नवजीवन में देने की उम्मीद करता हूँ ।

कोंकणस्थ मित्रको यह शंका ठीक नहीं कि दुग्धालय और चर्मालय शहरोंके लिए ही उपयोगी हैं, देहातके लिए नहीं। इस समय देहातमें गायें बड़ी खर्चीली हो गई हैं। उनके दूधका हिसाब रखना, उसकी नस्ल सुधारना, दुधारू गायोंके दूधको बढ़ाने और अच्छा बनाने की कोशिश करना शहरोंकी तरह देहातके लिए भी परमावश्यक है। मरे हुए जानवरोंकी खाल निकालकर उसको उसी समय पकाकर उसका अच्छा उपयोग करने की आवश्यकता तो देहातमें ही ज्यादा है और यह काम चर्मालयका है।

दुःखकी बात तो यह है कि आज हमें इस शास्त्रको पहले शहरों में पूर्णताको पहुँचाकर फिर देहातमें ले जाना पड़ रहा है, क्योंकि देहात में बड़े पैमानेपर प्रयोग नहीं किये जा सकते । पशुओंका बड़ी संख्या में वध तो शहरोंमें ही होता है। इसलिए