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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यदि शहरोंमें चर्मालय और दुग्धालयके प्रयोग धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टिसे हों तो उनका लाभ सभी गाँवोंको अनायास मिल जाये और हिन्दुस्तानका यह पशु-धन, जो हमारे अज्ञानके कारण आज व्यर्थ नष्ट हो रहा है, विनाशसे बच जाये और मनुष्य तथा पशु दोनों सुखी हों।

[गुजरातीसे ]

नवजीवन, ८-५-१९२७

३११. लगनसे क्या नहीं हो सकता ?

पश्चिमी देशोंमें कई बार लोग चौबीस घंटे क्लव स्विगिंग' यानी मुगदर घुमानेका प्रदर्शन करते हैं। इनका हेतु यह दिखाना होता है कि मनुष्य में कितनी सहन-शक्ति है। हजारों प्रेक्षक पैसा देकर उन्हें देखने के लिए जाते हैं, और नाटक- शालाएँ भर जाती हैं। इसमें मुझे सन्देह है कि ऐसे प्रदर्शनोंसे थोड़ा-बहुत भी लाभ होता है।

परन्तु पाठकोंको याद होगा कि कुछ-कुछ इसी ढंगका प्रयोग सत्याग्रहाश्रम में राष्ट्रीय सप्ताहके समय किया गया था । अलबत्ता, उसका हेतु भिन्न था; उसका आयोजन धार्मिक हेतुसे किया गया था। कई युवकोंने अकेले ही चौबीस घंटे तक जागरण करके आग्रहपूर्वक चरखा चलाया। उनमें से सबसे अधिक सूत कातनेवाले युवकका पत्र पढ़ने योग्य है, इसलिए नीचे देता हूँ : [१]

विद्यार्थियोंकी पवित्र लगनको सराहनेवालों तथा चरखा-यज्ञ में श्रद्धा रखनेवाले पुरुषोंको यह पत्र पढ़कर जरूर हर्ष होगा। मैं चाहूँगा कि जो विद्यार्थी इस पत्रको पढ़ें, वे इससे कुछ सीखें | खेलोंसे रुचि होना अच्छी बात है। किन्तु उतनी ही रुचि और लगन परोपकारके कार्य में हो तो और भी अच्छा है। वे इस उदाहरणसे यह भी सीखें कि जो अपने स्वास्थ्यकी रक्षा करते हैं और ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उनके लिए ऊपर लिखे अनुसार चौबीस घंटेका अविश्रान्त परिश्रम करना भी साध्य है। धन कमाने के लिए विद्याका उपयोग करना मानो उसका दुरुपयोग करना। विद्या तो तभी सार्थक होती है जब उसका उपयोग सेवाके लिए किया जाता है। फिर, विद्यार्थीके लिए श्रद्धाकी भी जरूरत है। भारतका दारिद्रय चरखे जैसी चीजसे दूर हो सकता है, इसे समझने में बुद्धि जरूर कुछ मदद कर सकती है; परन्तु चरखे के प्रति उसके प्रेमको टिकाये रखनेका काम तो आखिर श्रद्धा ही कर सकती है। में तो विद्यार्थियोंके विषय में इस बातको प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि श्रद्धाके अभाव में उनकी विद्या निरर्थक हो रही है।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, ८-५-१९२७

  1. यहां उद्धृत नहीं किया जा रहा है।