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३१२. पत्र : मीराबहनको

रविवार [८ मई, १९२७] [१]

दुबारा नहीं पढ़ा
चि० मीरा,

आशा है कि इन दिनोंके मेरे लिखे हुए तमाम पत्र तुम्हें मिलते रहे होंगे । मैं औसतन शायद एक पत्र हर दूसरे रोज लिखता रहा हूँ ।

तुम्हारा बादका पत्र मिल गया है। मैं देखता हूँ कि तुम्हें अपना मानसिक सन्तुलन फिरसे प्राप्त करने में कुछ समय लगेगा। जबतक तुममें लचीलापन बना रहता है, तबतक मुझे उतार-चढ़ावकी चिन्ता नहीं है। मेरी अपनी राय यह है कि तुम्हारा मेरे पास, जहाँ भी मैं रहूँ, आना उसी वक्त उचित होगा, जब तुम अपना निश्चित कार्य पूरा कर लो। किसी सामान्य आदमीको अपने ही द्वारा निर्धारित कार्यक्रम नहीं छोड़ना चाहिए। लेकिन अगर तुम अत्यधिक भावुक हो उठो और इससे तुम्हारे स्नायुओं पर दबाव पड़ता रहे, तो तुम्हें अपनी पढ़ाई समाप्त न होने पर भी आ जाना चाहिए ।

तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लो, मेरी यह चिन्ता स्वाभाविक है। मैं यह मानना नहीं चाहूँगा कि यह काम तुम्हारे बूतेका नहीं है। लेकिन तुम्हारी पढ़ाई या और किसी तैयारीकी अपेक्षा तुम्हारा स्वास्थ्य मेरे लिए अधिक कीमती है।

मेरी तन्दुरुस्तीके खयालसे तुम्हें मेरे पास आनेका विचार हरगिज नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अच्छी है और तुम्हारे आ जानेसे भी मेरी जैसी देखभाल हो रही है उससे बेहतर देखभाल नहीं हो सकती। अगर मुझे तुम्हारी सेवाकी जरूरत होगी, तो मैं तुम्हें तार दे दूंगा। लेकिन ऐसा होगा नहीं; क्योंकि चाहे जिससे सेवा ले लेनेकी मेरी आदत पड़ गई है और मैं अपनी जरूरतके अनुसार नये सेवक तैयार कर लेता हूँ। यहाँ मेरी आवश्यकता से अधिक सेवक हैं। इसलिए यदि तुम किसी तरहकी निजी सेवा करने की आशासे यहाँ आओगी, तो तुम अपने आपको बेकार महसूस करोगी और उबासियाँ लेती रहोगी।

अब वैयक्तिक सम्पर्ककी जरूरतकी बात लें। मेरा अपना मत यह है कि वह शुरूकी अवस्थाओं में जरूरी होता है और बादमें वह सम्पर्क मिल-जुलकर काम करने से होता है। तुम मेरे कामको अपना ही समझकर करनेसे रोज मेरे सम्पर्क में आती हो। और वह सम्पर्क मेरे इस भौतिक शरीरके नाशके बाद भी रह सकता है, रहना चाहिए और रहेगा। मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ, तो भी तुम मेरे सम्पर्कमें हो और रहोगी। और मैं तुम्हें ऐसी ही बनाना चाहता हूँ। तुम मेरे पास मेरी

  1. बापूज लैटर्स टु मीरासे ।