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३१५. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको

नन्दी
८ मई, १९२७

उनके बिना काम चला लेनेका तुम्हारा विचार, यदि इससे तुम्हारे स्वास्थ्यको हानि न पहुँचती हो तो, ठीक ही है । स्वास्थ्य में इतना सुधार हुआ है, इसे तो भगवान्का उपकार ही मानना होगा । किन्तु यदि कभी किसीकी मददकी जरूरत महसूस हो तो मुझे लिखनेमें संकोच मत करना ।

[ गुजराती से ]
बापुनी प्रसादी


३१६. पत्र : मीराबहनको

सोमवार [९ मई, १९२७ ][१]

चि० मीरा,

मुझे [ तुम्हारे ] दो पत्र फिर मिले हैं। यह क्या बात है कि अलग-अलग तारीखके और अलग-अलग लिफाफोंमें रखे हुए पत्र एक ही दिन मिलते हैं ?

मुझे आज और कुछ नहीं कहना है। मुझे खुशी है कि तुमने अपना मानसिक संतुलन फिर पूरी तरह प्राप्त कर लिया है।

अनुवादके सम्बन्धमें मेरा विचार यह है कि तुम पहले उसे बिना किसी अनुवादसे मिलाये करो और फिर अपनी कठिनाइयाँ दूर करनेके लिए अंग्रेजी पाठको देखो । आत्मविश्वासकी कमी होना तुम्हारे लिए ठीक है, किन्तु मुझे कोई सन्देह नहीं है और मैं यह नहीं चाहता कि तुम कोषके अतिरिक्त किसी अन्य पुस्तककी बार-बार सहायता लेकर अपनी मौलिकता गँवा बैठो। जो अंश तुम्हारी समझमें न आयें तुम उनपर चिह्न लगा दो और बादमें जैसा मैं 'गीता' के सम्बन्धमें कर रहा हूँ, उन्हें अन्य अनुवादोंसे मिला लो ।

वालुंजकर और गंगुबाई क्यों आये हैं? उन्हें मेरा स्मरण दिलाना। तुम्हारी खातिर मुझे उनके वहाँ होनेकी खुशी है।

सस्नेह,

तुम्हारा, बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२२७) से ।

सौजन्य : मीराबहन

  1. बापूज़ लैटर्स टु मीरासे ।