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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है कि हमें जीवित रहने की जरूरत नहीं है और नियति जब हमें जल्दी मृत्यु देती है तब वह बहुत मियव्ययिता बरतती है, क्योंकि इस तरह वह उस शक्तिको बचाती है, जो हमारे भीतर मौजूद है; किन्तु जिसे हम, जीवित रहना स्पष्ट रूपसे अनावश्यक हो जानेपर भी, जीवित बने रहकर नष्ट करते हैं। मैं इस बातपर जबतक थक नहीं गई विचार करती रही और तब मैंने अपने मनमें कहा, आखिर इससे क्या फायदा ? कुछ भी हो, अभीतक मृत्युका बुलावा नहीं आया है। इसलिए जबतक नष्ट करने योग्य कुछ और नहीं बच रहता, तबतक मुझे अपने को नष्ट करते ही रहना चाहिए।[१]

मृत्युके सम्बन्धमें, चाहे वह कभी भी आये, इस तरहका खयाल करना कि प्रकृतिकी अर्थ व्यवस्थाकी वह एक विवेकपूर्ण योजना है, कैसा सुखद विचार है ? यदि हम अपने पार्थिव अस्तित्व के नियमको ठीकसे समझ सकें और मित्र और त्राताके रूपमें मृत्युका स्वागत करने के लिए तैयार रह सकें तो हम जीवनके ऐसे उन्मादपूर्ण संघर्ष में रत होना छोड़ देंगे। हम दूसरोंके जीवनको क्षति पहुँचाकर और मानव-हितके समस्त विचारोंको नीची निगाहसे देखकर जीवित रहना नहीं चाहेंगे। किन्तु इस मित्रकी तरह तत्त्वचिन्तन करना एक बात है और उचित समयपर तत्त्वचिन्तन जन्य सत्यके अनुरूप अनुभूति हो सकना दूसरी बात । जबतक हम इस शरीरकी निश्चित और गम्भीर सीमाओंको उचित रूपमें नहीं समझ लेते और जबतक ईश्वरमें और उसके निर्धारित किये हुए कर्म फलके अपरिवर्तनीय नियममें हमारी स्थायी श्रद्धा नहीं होती तबतक इस तरहकी अनुभूति हो सकना असम्भव है।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १२-५-१९२७

३२३. बुढ़ापेमें भी जवानीका उत्साह

एक अंग्रेज बहन लिखती हैं :

मुझे आपसे स्विटजरलैंड निवासिनी एक प्रिय किसान वृद्धासे मिले एक पत्र और तसवोरोंके बारेमें कुछ बातें कहनी हैं। उसकी उम्र ७० वर्षसे भी अधिक है, वह इतनी उम्र में भी 'बिलेनिव' के ऊपर वाली पहाड़ीपर बैठी चरखा चलाती और कपड़ा बनतो रहती है। मेरे पत्रोंके जवाब में वह (फ्रेंच भावानें ) लिखती है, "जाड़े आ गये हैं, बर्फ पड़ना शुरू हो गया है, यह हमारे यहाँ कई महीने पड़तो रहेगी। मुझे अब करघेपर काम करनेके लिए काफी समय मिला करेगा। ५९ मोटरके दो थान तैयार करनेके लिए फरमाइशें

  1. गांधीजीके उत्तरके लिए देखिए “पत्र : ईजाबेल बमलेटको”, १०-५-१९२७ ।