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बुढ़ापेमें भी जवानीका उत्साह

आई हुई हैं। इसलिए उन्हें तैयार करनेके लिए मुझे ऐसे ही लम्बे समयकी जरूरत थी। क्योंकि अब (७५ वर्षको अवस्थामें ! ) में जल्दी थक जाती हूँ। इस वृद्धाका जोवन सन्तुष्ट और शान्तिमय जोवनका ऐसा पूर्णतया निर्दोष नमूना है, जैसा प्रत्येक किसानका जीवन होना चाहिए । गर्मियोंमें वह खेतों में काम करती है और कभी-कभी फुरसतके वक्त या बरसातके दिनोंमें चरखा या करघा चलाती है। लेकिन जाड़ेमें, जबकि जमीन बर्फ से ढक जाती है, वह सारा दिन कताई-बुनाई करती है। आप उससे करघे और चरखेकी हस्तकलाका यह उद्योग छीन लें तो वह पूरी मुसीबतमें पड़ जायेगी, लेकिन अभी तो इस उद्योगके कारण उस पहाड़ीके सब किसानोंमें वही सबसे अधिक सुखी और मृदुल स्वभाव- वाली है । ऐसा क्योंकर है ? इसलिए कि गाँवके उन सब लोगोंमेंसे केवल उसीने इस पुराने उद्यमको पकड़े रखा है और इसलिए केवल उसीका जीवन परिपूर्ण और सच्चा जीवन है। मैं आपको इस पत्रके साथ उसकी एक छोटीसी तसवीर भेज रही हूँ । उस चित्रमें वह वृद्धा एक लकड़ीके कुंदेपर बैठी हुई अपनी एक बकरीपर प्यारसे हाथ फेर रही है। इससे आपको उसके प्यारे, वृद्धावस्थाके प्रसन्न चेहरेकी कुछ कल्पना हो सकेगी। चित्रमें जो कम उम्रकी स्त्री है, वह उसकी पुत्रवधू है।

यह सुन्दर तसवीर मेरे पास है, जिसे मैं 'यंग इंडिया' में प्रकाशित नहीं कर सकता। लेकिन कल्पनासे इस तसवीरकी रेखाएँ भर सकनेवाले विचारशील पाठकको तसवीरको कमी पूरी कर सकते में कठिनाई नहीं होगी । पत्रमें ध्यान देनेकी बात यह है कि यन्त्रों के बोझ तले दबे हुए उन पश्चिमी देशों में भी ऐसे लोग हैं, जो चरखे और करघे द्वारा, सच्ची शान्ति पाते हैं। जो उद्योग किसी समय प्रधान और व्यापक गृहोद्योग थे और जब वह वृद्ध महिला इस ७५ वर्षको अवस्थामें भी इस उद्योगके कारण जवानी जैसे उत्साहका अनुभव करती है और उससे आजीविका नहीं बल्कि शान्ति प्राप्त कर रही है, तब भला इस उद्योगकी उस देश में कितनी अधिक आवश्यकता होगी, जहाँ बिरली ही स्त्रियां ७५ वर्षकी आयु पाती हैं, जहाँ अधिकांश ५० वर्षकी अवस्थामें ही नाहक बूढ़ी हो जाती है और जहाँ देशकी करोड़ों बहनोंको फुरसतके समय एक निर्दोष कुटीर उद्योग द्वारा मिलनेवाली शान्तिको ही नहीं बल्कि पेटकी ज्वाला शान्त करने के लिए भी किसी आजीविकाकी बेहद जरूरत है ?

[ इस सबके जवाबमें ] अज्ञानी निन्दक पूछता है, “यदि ऐसा है तो भारतकी करोड़ों स्त्रियाँ उस प्यारी स्विस बुढ़ियाकी तरह गृह-उद्योग क्यों नहीं अपना लेती हैं और इससे अपने लिए शान्ति और भोजन क्यों नहीं प्राप्त करती हैं ? उन्हें ऐसा करने से रोकनेवाली क्या चीज है ? " कुछ इसीसे मिलता-जुलता सवाल १८८९ या १८९० में एक हट्टे-कट्टे किन्तु उजड्ड दिखाई देनेवाले अंग्रेजने सुरेन्द्रनाथ बनर्जीसे उस समय किया था, जब वे अंग्रेजोंकी किसी सभामें व्याख्यान दे रहे थे । बंगालके तत्कालीन बेताज बादशाह बाबू सुरेन्द्रनाथसे उस शक्तिशाली शासक अंग्रेजोंकी पेढ़ीके उस