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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

योग्य सदस्यने पूछा कि यदि जैसा कि आप कहते हैं कि भारत स्वाधीनता चाहता है ठीक है, तो भारतको स्वाधीनता लेनेसे रोक कौन रहा है ? यह कैसी बात है कि शक्तिशालिनी और विशाल जनसंख्यावाली अंग्रेजोंकी पेढ़ीके सदस्य हम लोगोंने कभी ऐसी बातें नहीं सुनी कि भारतीयोंने खिड़कियोंके शीशे तोड़-फोड़ डाले या सिर फोड़ दिये, क्योंकि हम लोग तो अपनी मनचाही वस्तु न मिलनेपर ऐसा ही किया करते हैं? जहाँतक मुझे याद है अखबारोंमें वक्ता (सुरेन्द्रनाथ बनर्जी) का उत्तर नहीं दिया गया था। श्रोताओंके बीचसे केवल वाह, वाह ! की आवाजोंका उल्लेख किया गया था। किन्तु उस स्पष्टवादी अंग्रेजने सुरेन्द्रनाथजीसे जो सवाल किया था वही आज भी बड़ी आसानी से पूछा जा सकता है। और साथ ही हम यह भी जानते हैं कि ऐसा सवाल स्वाधीनताकी पुकारका जवाब नहीं हो सकता । शायद हम स्वाधीनताकी प्राप्तिका उपाय न जानते हों या उसे जानते हुए भी उसे अपनानेकी हममें इच्छा या शक्ति हो न हो। फिर भी स्वाधीनताकी पुकार न्यायपूर्ण भी है और स्वाभाविक भी, वह चाहे कितनी ही बेअसर क्यों न हो लेकिन वह स्वाधीनताकी ओर पहला कदम जरूर है।

पर जब इन करोड़ोंके भूखों मरनेकी बात कही जाती है, तब ये अज्ञानी निन्दक अज्ञानवश ही इस बातको भूल जाते हैं कि वे करोड़ों गरीब तो काम या रोटीके लिए भी पुकार मचाना नहीं चाहते । इसीलिए तो हम भी अंग्रेज इतिहासकारकी तरह उन्हें 'गूंगे' कहते हैं। और इसीलिए हमें (और उन निन्दकोंको भी) उनकी ओरसे आवाज उठानी पड़ती है । हमें उन करोड़ों गूंगोंको पहला पाठ पढ़ाना है । उनकी इस भयंकर गरीबी और अज्ञानके लिए वे नहीं, हम ही जिम्मेदार हैं। वे तो बेचारे यह जानते भी नहीं कि उन्हें क्या चाहिए, उनकी जरूरत क्या है, क्योंकि वे जीते हुए भी मुर्दोंके सदृश हैं ।

उन अस्पृश्योंसे यह कहनेकी हिम्मत कौन करेगा कि "यदि तुम स्वाधीनता चाहते हो तो ले लो, तुम्हें कौन रोकता है ?" परमात्मा बड़ा धैर्यवान और चिर सहिष्णु है। जालिमको वह अपनी कब्र अपने आप खोदने देता है। केवल समय-समय पर उसे गम्भीर चेतावनियाँ देता रहता है।

हम कह सकते हैं और कहना उचित ही होगा कि यद्यपि उस अंग्रेजका ताना सैद्धान्तिक दृष्टिसे ठीक ही है परन्तु अंग्रेजोंके मुँहसे यह प्रश्न इस ढंगसे सामने आते शोभा नहीं दे सकता जबकि हममें से हरएक आदमी यद्यपि अपनी लाचारी महसूस करता है, फिर भी स्वाधीनता प्राप्त करने की अपनी स्वाभाविक इच्छा व्यक्त कर रहा है। उसी प्रकार यदि हम मध्यम वर्गके लोग भी करोड़ों गरीबोंकी आवश्यकताके उत्तरमें वह ताना दें जो मैंने यहाँ उस काल्पनिक निन्दकके मुखमें रखा है, तो हमें शोभा नहीं देगा। उनकी आवश्यकताका उन्हें भले ही ज्ञान न हो किन्तु हममें से कुछ लोग तो उनकी जरूरत महसूस कर सकते हैं। अतः उनकी वह जरूरत पूरी करनेका यही उपाय है कि हम ऐसे प्रतिनिधियों को बढ़ायें जो न केवल उन गूंगे करोड़ों गरीबोंके पक्षकी वकालत करें वरन् खुद ऐसे तरीके अपनायें जैसे चरखा चलायें, अपने बढ़िया