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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ब्याज मिल रहा है। दुर्भाग्यवश भारतमें अकाल बराबर पड़ा ही करते हैं। फिलहाल अखिल भारतीय चरखा संघका प्रमुख कार्य अकालके ऐसे कारणोंको दूर करना है, जिनपर मानव काबू पा सकता है। बाढ़ोंको मानव एक खास हदतक ही रोक सकता या उसका नियमन कर सकता है। उस हृदसे ज्यादा नहीं। उस सीमासे आगे मनुष्य चाहे हजार युक्ति लड़ाये, वे बाढ़े अपनी बलि लेकर ही रहेंगी। परन्तु बाढ़ें हमेशा अपने पीछे दाय कर छोड़ जाती हैं, जिसे मनुष्य सहज सँभाल सकता और उसे वह करना ही होता है । उसी प्रकार अनावृष्टिके समय आदमी एक हदसे ज्यादा पानों भी कहींसे नहीं जुटा सकता । मानव ऐसी परिस्थितियां तो बना सकता है कि जो आदमी काम करने की इच्छा रखते हों वे काम करके गुजर-बसर लायक काफी जुटा सकें, यदि प्रकृति इतनी कृपा शेष रखें कि एक स्थानसे दूसरे स्थानको अनाज ले जाना सम्भव हो । ठीक इसी वातको व्यवस्था करनेका प्रयत्न अखिल भारतीय चरखा संघ अपने कार्यकर्ताओंकी बढ़ती हुई सेना द्वारा कर रहा है। उन्होंने जो तरीका अपनाया है, वह यह कि अवकाशके समय में कामको जहाँपर सबसे ज्यादा जरूरत है, ऐसे स्थानोंपर कताईके केन्द्रोंको स्थापना कर रहे हैं । और यह बात सुविदित है कि इस ढंगका काम दक्षिण भारत में सबसे बड़े पैमानेपर हो रहा है। मैंने जो पत्र उद्धृत किया है उसमें यही सिफारिश की गई है कि [मलाबार] बाढ़ सहायता कोषका उपयोग इसी संस्था अर्थात् अ० भा० च० संघके द्वारा हो । जब मैंने इस चन्देमें से कुछ रकमका उपयोग उड़ीसा के लिए करने की अपील की थी, तब उसपर सहायता देनेवाले किसी व्यक्तिने आपत्ति नहीं की थी। बल्कि कितनों ही ने तो मेरे सुझावको अच्छा बताते हुए मेरे पास चिट्ठियां भी भेजी थी। इस बारेमें भी में दाताओंको राय, यदि वे अपनी राय व्यक्त करना चाहें, जान लेना चाहता हूँ। इस सूचनाके प्रकाशित होने के बाद यदि १५ दिनके भीतर मेरे सुझावके विरुद्ध राय व्यक्त करनेवाली कोई चिट्ठी मुझे न मिली, तो उस पत्रके प्रतिष्ठित हस्ताक्षर- कर्ताओंके सुझाये हुए ढंगके मुताबिक चन्देको बची हुई रकमका उपयोग कर लेनेकी बात में सोच रहा हूँ | कहना न होगा कि मैंने अपने सभी साथियोंसे इस विषय में सलाह ले ली है और उन्होंने इस सुझावको ठीक बताया है।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १२-५-१९२७