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३२५. उड़ीसाके नरकंकाल

मेरी अपनी मान्यताके अनुसार तो यदि उत्कल -- - उड़ीसा में खादी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती तो और कहीं भी नहीं मिल सकती। फिर भी शायद यह बात कुछ विचित्र मालूम दे लेकिन हाथकताईका काम संगठित करनेमें खादी-कार्यकर्त्ताओं को जितनी कठिनाई उत्कलमें हुई है, उतनी और कहीं नहीं हुई । उत्कलके जीवित नरकंकालोंकी आँखों में आशाकी एक भी किरण नहीं दिखाई देती। जिसने जीवनको आशा ही छोड़ दी हो, जीविकाके साधनोंसे उसे क्या दिलचस्पी होगी ? उत्कलमें जिन लोगोंने चरखा अपना लिया है, वे जीवनमें अबतक कुछ आशा रख पा रहे हैं ? उस बहुत बड़े जन-समुदायके बीच, जिसने जीवनकी सारी आशा त्याग दी हो, हमारे खादी-सेवक अभी पहुँचे भी कहाँ हैं। हमारी अपनी आँखोंके सामने लोग मर रहे हैं। परन्तु हम तो यह तभी देख सकते हैं जब हमारी आँखें ऐसी हों और यदि हम आँखें खोलकर देखें तो हम सब यज्ञार्थं चरखा भी चलाने लगें और अपना समस्त संचित धन खादी के काम में लगा दें। और पैसा न हो तो अपने भोग-विलासकी सामग्री और खर्चमें कटौती करें, और बचतके धनको खादीकार्य में लगायें ।

इन नरकंकालों में पुन: जल्दी जीवन लानेके लिए जिस वातावरणकी आवश्यकता है, वह तभी बन सकेगा जब हम स्वयं कातने लगें। परन्तु चरखा कातनेका वातावरण अपने आपमें इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकेगा कि उस समस्याका एक हल्का-सा स्पर्श कर सके। प्रगति तो धनके एकत्रित होनेपर निर्भर है। दक्षिणाके बिना कोई भी यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकता। मुझे यह दिनके उजालेकी तरह साफ दिखता है कि आज सच्चा यज्ञ चरखा है, और चरखेकी प्रगतिके लिए धन देना एकमात्र दक्षिणा है। जिन लोगोंने इस सीधी-सादी बातको अभीतक नहीं समझा है उनकी आँखें इस पत्रसे [१] खुल जायेंगी ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १२-५-१९२७


३३-२२ Gandhi Heritage Portal

  1. लक्ष्मीदास पुरुषोतमका लिखा हुआ यह पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें भी शंकरलाल बैंकरकी तरह खादीके लिए अपील की गई थी। देखिए “उत्कलके लिए खादी”, ५-५-१९२७ ।