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३२६. पत्र : मीराबहनको

१२ मई, १९२७

चि० मीरा,

तुम्हारे दो पत्र फिर एक ही दिन मिले। मालूम होता है तुममें स्थिरता आ गई है । इससे मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है । लेकिन जब भी तुम अस्थिरता अनुभव करो, मुझे बता देनेमें संकोच न करना, क्योंकि अब तुम्हें अनुभवसे मालूम हो गया है कि मैं धीरज रखूंगा। मुझे सबसे ज्यादा चिन्ता इसकी है कि तुम वैसा दिखनेकी कोशिश न करो जैसी कि तुम नहीं हो। मुझे चाहिए कि मैं तुम जैसी हो उसी ही रूपमें तुम्हें स्वीकार करूँ और जैसा तुम्हें बनना चाहिए वैसा बननेमें तुम्हें मदद देना मेरा धर्म है । यह तभी सम्भव है जब मैं तुम्हें अपने से डरनेका कोई कारण नदूं। इसलिए मैंने तुमसे एक बार कहा था कि मैं तुम्हारे लिए केवल पिताका स्थान ही नहीं, बल्कि माताका स्थान भी लेना चाहता हूँ ।

जबतक डी० सी० तुम्हारे पत्रपर ध्यान देता है, उसका पिंड न छोड़ना । उसकी तमाम शंकाओं और प्रश्नोंका नम्रतासे उत्तर देना। अगर तुम्हें यहाँके प्रचलित रहट और रामचन्द्र कोसका फर्क मालूम हो तो उन्हें बता देना; और यह भी बता देना कि कताई केवल एक उद्योग ही नहीं, वरन् राष्ट्रका मुख्य उद्योग भी क्यों है।

मेरे वहाँ आनेके बारेमें लोगोंको शायद अब भी कुछ गलतफहमी है । मैं दो कारणोंसे वहाँ आनेके लिए उत्सुक हूँ । जिस स्थानके बारेमें मैंने इतनी बातें सुनी हैं, उसे में देखना चाहता हूँ और दूसरे तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ। मगर नहीं जानता कि कब आ सकूंगा। मुझे आशंका है कि अभी शायद में चार महीने और दक्षिणको नहीं छोड़ सकूंगा । मगर घटनाओंके बारेमें पहलेसे कुछ अन्दाज लगाने से कोई लाभ नहीं। मेरे लिए इतना ही कह सकना काफी है कि साबरमती जाने के लिए जितना उत्सुक होता हूँ उतना ही उत्सुक वहाँ जानेके लिए भी हूँ । कृष्णानन्दजी से यह बात नम्रतासे कह देना ।

वालुंजकर मुझे पत्र लिखे। तुम उसके नामके सही हिज्जे सीख लो। वह पत्र हिन्दीमें लिखे। क्या वे लोग वहीं ज्यादा दिन ठहरेंगे ? में अच्छी तरह हूँ ।

सस्नेह,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२२८) से ।

सोजन्य : मीराबहन