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३३२. पत्र : मणिबहन पटेलको

नन्दी दुर्ग
वैशाख सुदी १२ [१३][१] मई, १९२७

चि० मणि,

तुम्हारा पत्र मिला । तुम दोनों बहनोंने अपने नाम लिखा दिये, सो ठीक किया।[२] मैं तो चाहता हूँ कि तुम्हारा शरीर जितना सहन करे उतना पहरा तुम भी दो (भले किसी के साथ रहकर ) । डर-जैसा भूत इस संसार में दूसरा कोई नहीं और वह तो अभ्यास तथा ईश्वरकी कृपासे ही जाता है । मुझे तो पूरा विश्वास है कि चोरोंको जब यह विश्वास हो जायेगा कि हमारा चौकीदार भी उन्हें मारनेके लिए नहीं परन्तु मरनेके लिए ही वहाँ है और पहरा देनेवाले आश्रमवासी चौकीदार-जैसे वैतनिक आदमी नहीं, परन्तु गृहस्थ हैं, तब चोर आश्रमवासियोंको सताना छोड़ देंगे। तुममें से कोई-न-कोई तो किसी दिन आत्मबल दिखायेगा और उन लोगोंको प्रेमसे वश में करेगा। परन्तु निस्सन्देह यह सब सांपके बिलमें हाथ डालने जैसा है। सम्भव है, तुममें से किसीको मार भी खानी पड़े, जान भी गँवानी पड़े । रोगसे कौन बच पाया है ? स्त्री, पुरुष, बालक सभी उसकी चपेटमें आ जाते हैं। राधा कितनी बार बीमार पड़ी? रुखीको क्या हुआ ? जुहूके अस्पतालमें कितनी लड़कियाँ थीं? अगर हम यह सब सहन करते हैं तो चोर इत्यादिकी मार भी हम हँस कर सहन कर सकते हैं। इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? पुलिसके सिपाहियोंसे रक्षाकी इच्छा रखनेवालोंको जरूर अचम्भा होगा, मगर हमें नहीं होना चाहिए ।

तुम्हारी पूनियाँ, में कल कात रहा था, तभी मिलीं। उनमें से कुछ तुरन्त कातीं, एक भी तार नहीं टूटा । और आज मैंने सूतका कस निकालनेका एक निजी उपाय ढूंढ़ा है । उसमें तुम्हारी पूनियोंसे निकले हुए तारकी बराबरी [अन्य पूनियोंसे काता गया ] एक भी तार नहीं कर सका। इनसे अच्छी पूनियाँ मेरे हाथमें कभी नहीं आईं। इनके जैसी शायद एक दो बार मिली हों तो भले मिली हों। परन्तु में नहीं मानता कि तुम्हारी पूनियोंसे अच्छी पूनियाँ कोई बना सकता है। तुम्हारी पूनियाँ एक बार हाथ पर चढ़ जानेके बाद दूसरी पूनियोंसे कातना मुश्किल हो सकता है। जैसी पूनियाँ हैं वैसे अक्षर कर लो, कातना भी वैसा ही करो, सभीमें पहला नम्बर लाओ, यह मेरी इच्छा और आशा है।

कराचीसे कल पत्र आ गया। नारणदासकी गैरहाजिरीके कारण काम गड़बड़में पड़ गया है। इसलिए वे एक महीना मांगते हैं। मैंने लिखा है कि यदि वे चाहते

  1. साधन-सूत्र में “.१२" है ।
  2. आश्रममें पहरा देनेके लिए।