पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/३८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

३३६. पत्र : मथुरादास त्रिकमजीको

१४ मई, १९२७

यदि प्यारेलालको वापस भेजनेके बारेमें तनिक भी उतावली करोगे तो तुम्हें कड़ी डाँटका पात्र माना जायेगा। ...[१] बिना किसी सहायकके रहनेका प्रयोग करनेके लोभमें प्यारेलालको लौट जानेकी अनुमति कदापि न देना ।

यदि तुम क्षय रोगके बारेमें गुजराती में लिखना ही चाहते हो तो पहले स्वस्थ हो जाओ तब किसी मैडिकल कालेजमें भरती हो जाना तथा किसी तरहकी उपाधि लेनेकी इच्छा किये बिना उसका ज्ञान प्राप्त करना । ...[२] और कोई मौलिक खोजकरना ।

[ गुजराती से ]

बापुनी प्रसादी

३३७. पत्र : चिनाईको

नन्दी दुर्ग
वैशाख सुदी १३ [१४ मई, १९२७] [३]

भाईश्री ५ चिनाई,

आपका पत्र मिला। आपसे पहले भाई कल्याणजी और प्रागजीभाईने भी विवरण भेज दिया था परन्तु आपके पत्रसे घटनापर प्रकाश पड़ा है। आपने स्वयं मारे बिना और भागे बिना मार खाकर जो सहनशीलता दिखाई उसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ। इसका फल अच्छा ही होगा, इस सम्बन्धमें मेरे मनमें कोई शंका नहीं है। हम इसका परिणाम अपनी आँखोंसे नहीं देख सकते इसलिए मनमें लेशमात्र भी अविश्वास न लायें । अब आपके प्रश्नोंका जवाब देता हूँ । हिन्दू [ महा] सभामें भाग लें या नहीं इसका जवाब निश्चयपूर्वक नहीं दिया जा सकता। जो लोग वहाँ जाकर अपने सिद्धातोंपर अमल करानेकी शक्ति रखते हों वे अवश्य जायें; इसके सिवा, जो वहां के स्थानीय कार्यकर्त्ताओंके विचारोंको पसन्द करते हैं वे तो उसमें जायेंगे ही। हिन्दू-सभाके ध्येय में तो मुझे कोई दोष दिखाई नहीं दिया है। संगठन करनेमें तो कोई बुरी बात है नहीं। और अस्पृश्यता निवारण तो सबका धर्म है।

  1. यहाँ मूलमें कुछ अंश छोड़ दिये गये हैं।
  2. यहाँ मूलमें कुछ अंश छोड़ दिये गये हैं।
  3. महादेव देसाईको हस्तलिखित डायरीसे।