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पत्र : आश्रमकी बहनोंको


मालूम नहीं कि तुम्हें किसीने बताया है या नहीं कि कुछ समयसे साबरमतीमें हम लोगोंपर चोरोंकी बहुत अधिक कृपा रहने लगी है। एक बार तो उनसे हमारे चौकीदारकी मुठभेड़ हो गई और इसमें उसे बुरी तरह चोट आई। इस घटनाने मुझे हमारे अपने कर्त्तव्यका भान करा दिया है । और मैंने सोचा है कि पहरा देना हमारा उतना ही बड़ा कर्त्तव्य है जितना सम्मिलित भोजनालय चलाना। इसलिए मैंने सुझाया है कि हम सब स्त्री-पुरुष स्वयं ही अपनी चौकीदारी करें और अगर हमें चोर मिल जायें तो हम उन्हें मार-पीटकर आश्रमसे निकाल देनेके बजाय, उनसे इस गलत रास्तेको छुड़वानेका प्रयत्न करें और ऐसा करनेमें उनसे मार खानेकी जोखिम आये तो उसे उठा लें । मेरा यह सुझाव मान लिया गया है और आजकल तीससे अधिक स्वयंसेवक पहरा दे रहे हैं और इनमें पाँच स्त्रियाँ भी हैं। यह प्रारम्भ अच्छा है।

सम्मिलित भोजनालय दिनोंदिन सुधर रहा है। शंकरन् एक आदर्श मुखिया और रसोइया साबित हुआ है। भोजनालयमें २० से ज्यादा आदमी भोजन करते हैं। जब तुम लौटोगी तब यह सब देखकर तुम्हें प्रसन्नता होगी ।

सस्नेह,

तुम्हारा, बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२२९) से ।

सौजन्य : मीराबहन

३४७. पत्र : आश्रमकी बहनोंको

वैशाख सुदी पूर्णिमा [ १६ मई, १९२७ ][१]

बहनो,

यह जानकर कि तुम डरती नहीं, मुझे तो बहुत खुशी हुई। जो जानते हैं कि राम सबका रखवाला है वे क्यों डरें ? रामकी रखवालीका अर्थ यह नहीं होता कि कोई कभी हमें लूट न सकेगा या कोई जन्तु हमें कभी काटेगा नहीं। ऐसा कभी हो तो उससे रामकी रखवालीपर नहीं, बल्कि हमारी श्रद्धापर लांछन लगता है। नदी सबको पानी देनेके लिए तैयार रहती है। मगर कोई लोटा लेकर उसमें से न भरे या यह मानकर कि पानी जहरीला होगा, उसके पासतक न जाये, तो उसमें नदीका क्या कसूर ? भयमात्र अश्रद्धाकी निशानी है। मगर श्रद्धा कोई अकल दौड़ाकर नहीं पैदाकी जा सकती। वह धीरे-धीरे मननसे, चिन्तनसे और अभ्याससे आती है। इस श्रद्धाको पैदा करनेके लिए हम प्रार्थना करते हैं, भजन गाते हैं, अच्छी पुस्तकें पढ़ते

  1. आश्रममें चोरकि आनेके उल्लेखसे ।