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नागपुर सत्याग्रह

चाहता था। अच्छा होता यदि श्री अवारी व्यर्थ ही मेरे नामको बीचमें न घसीटते । यदि उनका खयाल था कि उनके आन्दोलनके लिए मेरी अनुमति है तो उन्हें ऐसा करना चाहिए था कि वे अपने आन्दोलनकी सारी योजना स्पष्ट रूपसे मेरे सामने रखते, और उसपर मेरी लिखित अनुमति प्राप्त कर लेते । यदि मैं उसे ठीक मान लेता, परन्तु उसमें सक्रिय भाग न ले पाता तो कमसे-कम इन स्तम्भोंमें मैं अपनी पूरी शक्तिभर उसका समर्थन तो करता ही। खैर, अब यदि मेरे अनुमति देनेकी बात स्वीकार न करनेसे उनके आन्दोलनको किसी प्रकारसे क्षति पहुँचे, तो इसके लिए वे अपने आप ही को धन्यवाद दें ।

और आइन्दाके लिए मेरे नामका उपयोग करनेकी इच्छा रखनेवाले सभी लोगोंके लिए मेरा यह कदम चेतावनीका काम भी देगा कि मेरी लिखित सम्मति लिए बिना वे किसी आन्दोलनके साथ मेरा नाम न जोड़ें। वस्तुतः अब तो कार्यकर्ताओंको स्वावलम्बी और इतना साहसी हो जाना चाहिए कि अपने आन्दोलनके लिए उन्हें बड़े और प्रभावशाली समझे जानेवाले लोगों के नामोंका उपयोग करनेके लिए उनके मुंह न ताकने पड़ें। उन्हें अपनी मान्यताओंपर और अपने उस उद्देश्यके बलपर, जिसे वे हासिल करना चाहते हों, भरोसा रखना चाहिए। गलतियाँ तो होंगी। कष्ट भी होंगे, ऐसे कष्ट जो टाले जा सकते थे। लेकिन राष्ट्रोंका निर्माण आसानीसे नहीं हो जाता है। कोई बड़ी और स्थायी चीज हासिल करनेके पहले कठोर और कड़े अनुशासनका होना जरूरी है। और यह अनुशासन कोरे तर्कों और तर्कमें सही लगनेवाली बातोंसे नहीं प्राप्त होगा। अनुशासनका पाठ तो विपत्तिकी पाठशालासे सीखा जाता है। और जब जोशीले जवान किसीकी आड़ लिये बिना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करनेमें प्रशिक्षित हो जायेंगे तो वे जिम्मेदारी और अनुशासनको भी अच्छी तरह जानने लग जायेंगे । और वैसे भावी नेताओंके लश्करमें से एक ऐसा सच्चा नेता पैदा होगा, जिसे अनुशासन और आज्ञापालनके लिए उन गुणोंकी पैरवी नहीं करनी होगी, बल्कि वे गुण उसे अपने आप अनायास प्राप्त होंगे। क्योंकि वह बहुत-सी कसौटियोंपर खरा उतर चुका होगा और निर्विवाद रूपसे अपना नेता होनेका अधिकार सिद्ध कर चुका होगा ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १९-५-१९२७