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पत्र : सतकौड़ीपति रायको

अपने लेनदारोंका पैसा वापस कर दिया । अपनी वकालतके दौरान मैंने अपने एक सबसे ज्यादा प्रिय मुवक्किलको[१] ऐसी ही सलाह दी थी। उसने सत्याग्रह आन्दोलनमें भाग लिया था, अतः उसे दिवालिया करार देनेवाली अदालतमें जाना पड़ा । मैंने लेनदारोंकी सभा बुलाई। वे माननेके लिए तैयार नहीं थे। मैंने उन्हें ललकार कर कह दिया कि उनसे जो बन पड़े कर लें। परिणाम दिवालियापन था । परन्तु दिवालियापनके बाद मेरे मुवक्किलने ऋणदाताओंकी सारी रकम वापस कर दी । इससे उन्हें बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ । उन्होंने क्षमा माँगी । बादमें उन लोगोंने मेरे मुवक्किलको अपरिमित धन उधार देकर अपनी श्रद्धा दिखाई, जिसके लिए उन्हें खिन्न होनेका अवसर कभी नहीं आया । इसलिए मैं आपको दृढ़तासे सलाह देता हूँ कि आप ऋणदाताओंसे मिलें । सारी स्थिति स्पष्ट रूपसे एवं निडर होकर उनके सामने रख दें और उन्हें बता दें कि यदि कमाई होगी तो आप उनका पैसा वापस कर देंगे । यदि वे नहीं सुनते तो आपको दिवालिया बनवा दें। या यदि दिवालियेपनका कानून स्वेच्छापूर्वक समर्पणकी अनुमति देता हो तो आप स्वेच्छासे भी अपना सब कुछ उनके हवाले कर सकते हैं। तब आपको साँस लेनेका वक्त मिल जायेगा । उस समय यदि आप फिरसे वकालत आरम्भ करना न चाहें तो आप खादी सेवामें प्रवेश कर सकते हैं । खादीसे आपको २५,००० रुपये कभी नहीं मिलेंगे। परन्तु यदि खादी आन्दोलन शीघ्रता से प्रगति करे, तो खादी तिजारती व्यवसाय बन जायेगा। और जब ऐसा हो जायेगा, तो इसमें से भी अच्छी खासी रकम प्राप्त की जा सकेगी। यह बहुत देरसे हो सकनेवाला कार्य लगता है । परन्तु मुझे ऐसा नहीं लगता है, क्योंकि मैं खादीको व्यापारिक दृष्टिकोणसे भी बहुत ही ठोस व्यवसाय मानता हूँ | हमारे धनिक व्यापारी व्यापारसे जो कुछ रकम कमायेंगे उसका न्यूनतमांश खादीसे भी कमाया जा सकता है । आखिरकार ठोस आधारवाले किसी भी व्यवसायकी प्रगति धीमी होगी । परन्तु मेरा खादी में ऐसा विश्वास है कि यद्यपि इसकी प्रगति धीमी है, किन्तु आगे चलकर यह किसी व्यक्ति और निस्सन्देह राष्ट्रकी स्वस्थ व्यावसायिक समृद्धिका सबसे छोटा रास्ता साबित होगा ।

इसलिए मैं नहीं चाहता कि आप झूठे गर्व अथवा झूठी मानमर्यादाके प्रभावमें आकर हार मान बैठें। मैं चाहता हूँ कि आप दूसरोंके लिए दृष्टान्त बनें । इसलिए कृपया मेरी सलाह मानिये और इस बोझसे, जो आपको दबाये डाल रहा है, छुटकारा पा लीजिए। उसके बाद दृढ़ प्रतिज्ञा कर लीजिए कि अबसे एक पैसा भी उधार नहीं लेंगे । जनसेवकोंको उधार लेना ही नहीं चाहिए। आपके परिवारमें आपके जो बहुतसे आश्रित हैं उनसे आप अनुरोध करें कि वे अपनी रोजी स्वयं कमायें । वे सब खादीका काम करें । और यदि वे ऐसा नहीं करना चाहते तो पुरुष सदस्य अपना मार्ग स्वयं चुन सकते हैं। हो सकता है कि महिलाएँ इसपर शिकायत करती रहें, परन्तु अन्तमें वे नियतिके आगे झुक जायेंगी । पारिवारिक दायित्वोंका नियमन भी राष्ट्रीय उन्नतिका आवश्यक अंग है। यदि हमें राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है

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  1. अ० मु० काछलिया; देखिए खण्ड ९, पृष्ठ १५८ ।