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३५७. पत्र : फूलचन्द शाहको

नन्दी दुर्ग
वैशाख कृष्ण ३ [१९ मई, १९२७ ]

भाईश्री ५ फूलचन्द,

आपका पत्र मिला । मेरा अपना मत हमेशा यही रहा है कि देशी रियासतोंके कामकाजमें अंग्रेजोंको मध्यस्थताके लिए नहीं बुलाना चाहिए। पर यह मत हर मामले में मानने योग्य है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जो मनुष्य अंग्रेजोंको मध्यस्थताके लिए नहीं कहता या उसकी इच्छा नहीं करता उसमें मैं दूसरे प्रकारकी शक्तिका होना मान लेता हूँ। दूसरे प्रकारकी शक्ति यानी यह कि वह जुल्मका मुकाबला शान्ति या अशान्तिसे लड़कर करे अथवा इस सारे अन्यायको चुपचाप सहन करनेकी शक्तिका विकास करे। जो मनुष्य न तो लड़ सकता हो और न जुल्म सहन कर सकता हो, जो अंग्रेजोंकी मदद न लेनेपर बिलकुल निरुपाय हो जायेगा और परवशता स्वीकार करके अपना मनुष्यत्व खो बैठेगा, उसे अंग्रेजी राज्यकी मदद अवश्य लेनी चाहिए। काठियावाड़ राजकीय परिषदकी मेरी जो कल्पना है उसमें अंग्रेजी राज्यकी मदद लेनेकी बात नहीं है। इसलिए अगर यह परिषद मेरी कल्पनाके अनुसार चलेगी तो उसमें सिर्फ असहृयोगी, सत्याग्रही, खद्दर-पोश आदि [ रामायणकी भाषामें ] वानर और रीछ ही होंगे ।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (सी० डब्ल्यू० २८५४) से ।
सौजन्य : शारदाबहन शाह

३५८. पत्र: शापुरजी सकलातवालाको

नन्दी हिल्स, (मैसूर राज्य)
२० मई, १९२७

प्रिय मित्र,

यह उद्धरण पण्डित मोतीलालजीने मेरे पत्रका जो उत्तर दिया है, उसमें से है। कृपया मुझे बताइये कि आप इस मामलेमें मुझसे क्या करवाना चाहेंगे।

हृदयसे आपका,

संलग्न : १

शापुरजी सकलातवाला, संसद सदस्य
हाउस ऑफ कॉमन्स

लन्दन एस० डब्ल्यू० १

अंग्रेजी (एस० एन० १२५०४) की फोटो-नकलसे ।