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३६३. पत्र: मणिबहन पटेलको

नन्दी दुर्ग
२१ मई, १९२७

चि० मणि,

तुम्हारा पत्र मिला । 'कदी नहीं हारना भावे साडी जान जावे यह गीत तो तुमने सुना है न ? इसलिए हमारी जान भी चली जाये, तो भी क्या ? और फिर कातने और सुन्दर अक्षर लिखनेके मामलेमें क्या हार मानना उचित है ? सावधान करनेके लिए एक चौकीदार तो मैं बैठा ही हूँ, तुम्हारे पास हूँ । बूंद-बूंद करके सरोवर भरता है और कंकर-कंकर करके बांध तैयार होता है। उद्यमके आगे कुछ भी असम्भव नहीं। इसलिए निराश होनेका कोई कारण नहीं । नियमित रूपसे कातनेसे गति जरूर बढ़ेगी; नियमित रूपसे साफ और बड़े-बड़े अक्षर लिखनेकी आदत डालनेसे अक्षर जरूर सुधरेंगे । जिनके अक्षर बहुत खराब थे और अभ्याससे अच्छे हो गये, इसके मेरे पास कई उदाहरण हैं। भण्डारका काम अपने ऊपर लेकर तुमने बहुत अच्छा किया। अब उसे हरगिज न छोड़ना और अच्छी तरह पूरा करना । हिसाब लिखना भले ही न पड़े, परन्तु हिसाबके सामान्य सिद्धान्त जान लेना । और भण्डारके कामके कारण दो घंटे कातनेका समय न मिले तो भले ही कम कातो, परन्तु जितना समय मिले उतने समयमें स्वस्थ चित्तसे कातना। अधीरतासे लम्बे समय तक कातनेकी अपेक्षा एकाग्र चित्तसे धीरजके साथ थोड़े समय कातनेसे कस बढ़ेगा और गति बढ़ेगी और सब तरहसे अच्छा सूत निकलेगा।

गंगादेवीके बारेमें मुझे खबर देती रहना ।

बापूके आशीर्वाद

[गुजरातीसे ]

बापुना पत्रो - ४ : मणिबहेन पटेलने