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३६५. नौकरीसे अलग किया जाये ?

श्री अमृतलाल ठक्करने एक अन्त्यज बहनके प्रति जिस डाक्टरकी निर्दयताका उल्लेख किया था [१], उसका नाम-धाम अब मुझे मालूम हो गया है। इस समय उस घटनाकी जाँच की जा रही है। इसलिए मैं अभी डाक्टरका नाम-धाम बतानेकी कोई आवश्यकता नहीं देखता। परन्तु एक प्रसिद्ध डाक्टर मित्र लिखते हैं :[२]

मेरा इस पत्रको प्रकाशित करनेका उद्देश्य केवल यही है कि अन्त्यज बहनके प्रति ऐसी निर्दयता कोई भी बरदाश्त नहीं कर सकता। मैं नहीं मानता कि यदि वह डाक्टर निजी तौरपर अपना धन्धा करता हो तो अहिंसाका पालन करनेवालोंके लिए हाथ पर हाथ रखकर रोनेके सिवा और अहिंसाका पालन न करना हो तो उसकी हड्डियाँ-पसलियाँ तोड़नेके सिवा और कोई उपाय शेष नहीं रहता । हड्डियाँ-पसलियां तोड़नेसे वह डाक्टर सुधर जायेगा, ऐसा तो है नहीं। उससे अन्त्यज भाई-बहनोंको भी कोई लाभ न होगा । उससे न डाक्टरके प्रति न्याय होगा और न उस बहनके प्रति की गई निर्दयताका परिशोध । अहिंसा धर्मके सच्चे उपासक रो-धोकर बैठ जायें ऐसी कोई बात नहीं है। अहिंसा धर्म न तो कायरोंका धर्म है और न मूर्खोका । वह तो ऐसे लोगोंका धर्म है जो चौबीसों घंटे जाग्रत रहते हैं । हिंसाका कानून तो केवल शरीर और शरीरसे सम्बन्धित वस्तुओंको ही प्रभावित कर सकता है; परन्तु अहिंसाका धर्म तो ठेठ हृदय तक पहुँचता है। अहिंसाके द्वारा मनुष्योंमें धर्मका बोध जगाया जा सकता है। यानी, समाजमें निर्भय और सात्विक लोकमतका विकास किया जा सकता है । जिस गाँव या नगरमें यह घटना हुई, वहाँ शुद्ध दयाधर्मका वातावरण होता तो ऐसी निर्दयताकी घटना वहाँ हो ही नहीं सकती थी । वह बेचारा डाक्टर तो निमित्तमात्र हो गया है। निर्दयता तो उस वायुमण्डलमें पहलेसे ही मौजूद थी । तभी तो उसे इलाज करनेसे पहले ही फीसके दो रुपये माँगनेकी हिम्मत हुई और रुपये मिल जानेपर भी उस अन्त्यज बहनको, उसके रोगकी जाँचके लिए भी छूनेमें भ्रष्ट हो जानेका भय लगा । अहिंसाका काम है, हमेशा जाग्रत रहकर सात्विक लोकमतका विकास करना और ऐसा वातावरण बना देना, जिससे इस डाक्टर जैसे लोगोंकी अघम वृत्तियोंको पोषण ही न मिलने पाये ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, २२-५-१९२७

  1. देखिए " घोर अमानुषिकता", ५-५-१९२७।
  2. यहाँ उद्धृत नहीं किया जा रहा है।