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३६६. गाय और भैंस

एक अहिंसाके उपासक लिखते हैं :[१]

मैंने "गाय बनाम भैंस" लेख लिखते समय मान लिया था कि भैंसको स्वराज्य देनेकी बातमें स्पष्ट करने जैसा कुछ नहीं है। जिस जानवरको हम पालते हैं उसकी स्वतन्त्रता तो हम छीन ही लेते हैं, भले उसका पालन कितने ही शुभ हेतुसे क्यों न करते हों। सैकड़ों अंग्रेज यह मानकर खुश होते हैं कि वे शुभ हेतुसे हिन्दुस्तानका पालन करते हैं। और हम उस पालनको अस्वीकार करते हैं, तो भी वे हमें बेवकूफ समझकर अपना पालन करनेका धर्म नहीं छोड़ते। लेकिन हम दोनोंके बीच कोई न्यायाधीश नियुक्त हो, तो उसके सामने हमारी इतनी गवाही काफी होगी : 'हमारे दुःखकी बात हमारे स्वयंभू पालक क्या जानें ? उसे या तो हम ही जान सकते हैं या त्रिकालदर्शी ईश्वर जानता । और हम तो कहते हैं कि हमारा हित हमें छोड़ देनेमें ही है। " इसी तरह भैंसके जबान हो, उसके हमारे बीच निष्पक्ष न्यायाधीश हो, और भैंस हमारे जैसी दलील करे और मैं मानता हूँ कि वह करेगी -- - तो निर्णय उसीके पक्षमें होगा। इसीसे मैंने लिखा कि भैंसको पालनेका मोह छोड़ देनेमें हम भैंसको निकाल नहीं देंगे, यानी उसका अहित नहीं करेंगे, बल्कि उसे स्वतन्त्रता दे देंगे। इसमें ली हुई जिम्मेदारियोंका इनकार कहीं नहीं है। जिस भैंसको हमने रखा है, उसकी जिम्मेदारी तो निभानी ही पड़ेगी। लेकिन गायका वंश बढ़ाने और सुधारनेके लिए अनेक उपाय सोचनेका जो धर्म हमने माना है वैसा धर्म, मेरा विचार ठीक हो तो, भैंसके सम्बन्धमें पैदा नहीं होता। यानी गोरक्षाके विशेष धर्ममें भैंसकी रक्षाको गिन लेना जरूरी नहीं है। मेरी बताई हुई योजना सब स्वीकार कर लें, तो जहाँ गाय-बैलका निर्वाह नहीं हो सकता और भैंसका ही निर्वाह हो सकता है, उन प्रदेशोंमें पाली हुई भैंसोंको इकट्ठा करने और उनके पाड़े वगैराकी भी पूरी रक्षा करनेका धर्म अपने-आप पैदा हो जाता है।

मेरे कहनेका मतलब यह नहीं था कि ग्राम-जीवन सम्बन्धी दुग्धालय और चर्मालय अलग ही होने चाहिए । परन्तु आजकी परिस्थितिमें हमारी ऐसी दयाजनक हालत हो गई है कि पशुपालनका शास्त्र, गायको दुःख दिये बिना अधिकसे-अधिक दूध प्राप्त करनेका शास्त्र और उसका चमड़ा वगैरा कमानेका शास्त्र हम शहरों में प्रयोग करके ही गाँवोंमें ले जा सकेंगे । आज जब कि गोचर भूमियोंका नाश हो गया है, खली, चारा वगैरा महँगे हो गये हैं, तब गाँवोंके लोग बड़ी मुश्किलसे अपने जानवरोंको जीता रख सकते हैं। चमड़ेका उपयोग तो अपढ़ चमार जितना हमें दे दे, उतना ही लेकर हम सन्तुष्ट रहते हैं। हड्डियाँ वगैरा बेकार जाती हैं। नतीजा यह

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें लेखकने गांधीजीके "गाय बनाम भैंस", ८-५-१९२७ शीर्षक लेखका हवाला देते हुए पूछा था कि भैंसको स्वराज्य देनेसे उनका क्या मतलब है।