पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/४१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होता है कि यह जीवित धन बरबाद हो रहा है, ढोर मरते नहीं तो हाड़पिंजर बनकर मुर्देकी तरह जिन्दा रहते हैं, अक्सर मालिकपर भाररूप हो जाते है और अन्तमें बम्बई वगैरा शहरोंके कसाईखानेमें पहुँचते हैं। मैं यह बात समझता हूँ कि इस स्थितिमें महत्वपूर्ण परिवर्तनकी जरूरत है, मगर अभी यह कहनेमें असमर्थ हूँ कि यह परिवर्तन कैसे हो सकते हैं और हमें पश्चिमसे कितना लेना चाहिए। यह सारी चीज अभी प्रयोगकी अवस्थामें है। अगर मैं साफ-साफ समझा सका होऊँ कि हमें क्या करना है, तो फिर किस तरह करना है, यह तो हरएक सेवकको अपने लिए और अपनी जिम्मेदारीपर तय करना होगा। ऐसा समय कभी था, जब हमारी सभ्यतामें उचित फेरबदल हो सकते थे और फेरबदलकी आवश्यकता लोग स्वीकार कर सकते थे । कहा जा सकता है कि जबतक उन्नतिकी यह शर्त मानी जाती थी, तबतक हमारी सभ्यता जीवित थी । आज तो हम यह मान बैठे हैं कि शास्त्रके नामसे जो छपी हुई पुस्तक हाथमें आये, उसमें लिखा सब ब्रह्म वाक्य है और उसमें कोई कमोबेशी नहीं हो सकती। हमें इस भयानक मानसिक मृत्युसे बाहर निकलना ही चाहिए । यह हम आज भी अपनी नई दृष्टिसे देख सकते हैं कि युग-युगमें हमारे रहन-सहनमें परिवर्तन हुआ है। यह नियम स्वीकार करके निःस्वार्थ संस्कारवान् सेवकोंको आत्म- विश्वास के साथ गाँवों में प्रवेश करना चाहिए। सभीके लिए खास सिद्धान्तोंको मानकर चलना बहुत जरूरी है। इन सिद्धान्तोंके अमलमें विविधता तो होगी ही; यह अनिवार्य है और स्वागत करने लायक है । उसमें से हमें सिद्धान्तोंपर अमल करनेके अच्छेसे- अच्छे रास्ते मिल जायेंगे। इस विचारश्रेणीके अनुसार यह बात गौण हो जाती है कि पश्चिमके यन्त्र इस्तेमाल करना है या नहीं, और करना है तो कहाँतक । साधारण नियम तो यह है ही कि गाँवोंमें जितना हम पैदा करते हैं या पैदा कर सकते हैं, उतना वहीं पैदा करें और बनावें और देहाती औजारोंसे काम चलता हो, तो जर्मनीके अधिक अच्छे माने जानेवाले कुपके औजार दाखिल करनेके जालमें न फंसें । लेकिन अगर हम सीनेकी सूई गांवमें न बना सकते हों और आस्ट्रियासे सस्ती सूई मिलती हो, तो उसके साथ हमें कोई वैर नहीं रखना चाहिए। अच्छी, ग्रहण करने योग्य और हजम हो सकनेवाली चीज कहींसे भी लेनेमें में कोई दोष नहीं देखता।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, २२-५-१९२७