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३६७. पत्र : ईजाबेल बमलेटको

नन्दी हिल्स, (मैसूर राज्य)
२२ मई, १९२७

प्रिय बहन,

आपका पत्र मिला। जब मैं कहता हूँ कि समस्या इतनी सहज नहीं है, जितनी आप समझती हैं [१], तो मेरे ऐसा कहनेके दो अर्थ होते हैं। यह काफी नहीं कि केवल ईश्वरका नामोच्चारण किया जाये या किसी विशेष वस्तु या किसी विशेष व्यक्तिके सहारे रहा जाये। बल्कि आवश्यक यह है कि ईश्वरकी सेवामें प्रस्तुत रह कर पता लगाया जाये कि उसकी इच्छा क्या है । यह मालूम करना है तो कठिन कार्य, पर मैंने उसे अनुभवसे बहुत आनन्दप्रद पाया है। कभी-कभी हमारे सामने यह दुर्बोध प्रश्न खड़ा हो जाता है कि जिसे हम ईश्वरकी इच्छा समझ रहे हैं वह वास्तव में उसीकी इच्छा है हमारी अपनी नहीं । जब हम समझते हैं कि ईश्वरकी इच्छा वास्तवमें ईश्वरकी इच्छा है और वह हमारी इच्छासे मेल नहीं खाती, तो प्राय: यह एक प्रश्न बन जाता है और यह अति दुर्बोध प्रश्न होता है । इस तरह हम कुछ वैसी ही बातपर आ पहुँचते हैं, जैसी कि सेंट पॉलने कही है 'अपनी मुक्तिके लिये स्वयं उपाय करो ।'

दूसरी कठिनाई यह है कि सभी धर्मोके बहुतसे सिद्धान्त समान हैं । सभी धर्मोंने अच्छे, सच्चे और धार्मिक पुरुषों एवं स्त्रियोंको जन्म दिया है और जन्म देते रहेंगे।

इन परिस्थितियों में संसारके सभी धर्मोके विनीत विद्यार्थीके लिये प्रार्थनासे यह निष्कर्ष निकाल पाना कि सबसे सच्चा धर्म कौन है, सहज कार्य नहीं है। परन्तु यह कहना, जैसा कि मैं भी कहता हूँ, कठिन नहीं है कि सब धर्म लगभग ईश्वर प्रदत्त हैं, और इसलिए मनुष्यको अपने पूर्वजों द्वारा अपनाये गये धर्ममें मुक्तिका उपाय खोजना चाहिए । क्योंकि सत्यकी खोज करनेवाला इस निष्कर्षपर पहुँचता है कि सब धर्म द्रवीभूत होकर ईश्वरमें मिलकर एक हो जाते हैं, उस ईश्वरमें जो एक है और जो अपने सब जीवधारियोंके लिए समान है।

यदि मैंने 'यंग इंडिया' में कुछ लिखा तो आपकी चेतावनीको ध्यान में रखूंगा। निश्चय ही में आपके नामका उल्लेख नहीं करूँगा ।

हृदयसे आपका,

श्रीमती ईजाबेल बमलेट
द्वारा द ब्रिस्टल होटल, कलकत्ता

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ४४४२) की फोटो-नकलसे ।

सौजन्य : कार्लाइल बमलेट

  1. देखिए “ पत्र : ईजाबेल बमलेटको ", १०-५-१९२७ ।