३७३. पत्र : मीराबहनको
२३ मई, १९२७
यद्यपि मुझे तुम्हारे कई पत्र मिले हैं लेकिन इस सप्ताह भर मैंने तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा। और फिलहाल मेरा विचार तुम्हें प्रति सप्ताह एकसे ज्यादा पत्र लिखनेका नहीं है। मैं 'यंग इंडिया' 'नवजीवन' और 'गीता' के कामके लिए अपनी शक्ति बचाना चाहता हूँ। मैं आजकल 'गीता' पर पहलेसे कमसे-कम पाँच गुना अधिक परिश्रम कर रहा हूँ। यदि हो सके, तो अनुवादको अगस्त समाप्त होनेसे पहले खतम करना चाहता हूँ। और आरामके दौरान मैं 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' पर इन पत्रोंके स्तम्भ भरनेकी अपनी कोई जिम्मेदारी माने बिना अधिक ध्यान देना चाहता हूँ। लेकिन जरूरत हुई या तुम्हारी मनःस्थिति फिर वैसी ही हुई, तो अवश्य ही तुम्हें ज्यादा पत्र लिखूंगा। परन्तु अब तुम्हारी मनःस्थिति वैसी नहीं होगी ।
मुझे बहुत खुशी हुई कि तुमने भाँगका विरोध किया। वह लगभग शराबकी तरह ही बुरी है। कुछ भी हो, यह याद रखना कि हकीमजीके पान देनेपर मैंने तुम्हें क्या लिखा था-[१] किसी भी वस्तुको उसके गुणदोष जाने बिना हरगिज न खाना । जिस चीजके बारेमें शंका हो उसे छोड़ देना और जरूरत हो तो मुझसे पूछ लेना । मुझे जमनालालजीसे पूछनेपर मालूम हुआ है कि महाराजजी स्वयं भाँग खाते हैं। दुर्भाग्यसे धार्मिक वृत्तिके बहुतसे लोग मानसिक सुखकी प्राप्तिके लिए भाँग खाते हैं। किन्तु उससे जो सुख प्राप्त होता है, मैं जानता हूँ कि वह मिथ्या है । लेकिन तुमने उन्हें यह बात बताकर अपने कर्त्तव्यका पालन किया है। अब धीरे-धीरे सब बातें व्यवस्थित हो जायेंगी ।
जमनालालजीने मुझे तुम्हारा हिन्दीका पत्र दिखाया था। वह काफी अच्छा था । लिखावट तो बहुत ही अच्छी थी। ज[ मनालाल ] कल बम्बई जा रहे हैं।
मैं रोलाँके तुम्हारे नाम आये पत्रके तुम्हारे अनुवादकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।
मैं दोपहरके खानेमें रोटी या भाखरी और एक सब्जी फिर लेने लगा हूँ। आज पांचवां दिन है। अभीतक तो कोई नुकसान नहीं हुआ है। घूमता भी पहलेसे ज्यादा हूँ ।
सस्नेह,
तुम्हारा,
बापू
[ पुनश्च : ]
साथका पत्र गंगूके लिए है।
अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२३० ) से ।
सौजन्य : मीराबहन
- ↑ देखिए खण्ड ३२, पृष्ठ ५४०-४१ ।