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३७६. पत्र: राधाको

२३ मई, १९२७

[ चोरों द्वारा तुम्हारे ऊपर फेंके गये ] उस ढेलेसे तुम्हें डर नहीं लगा यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई । अच्छा हुआ कि उससे तुम्हें कोई भारी चोट नहीं आई। लेकिन चोट आ भी जाये तो उससे क्या ? ढेलेसे चोट लगी भी तो शरीरको लगेगी न ? शरीर तो चूड़ीके समान है। मनुष्यकी सौ वर्षकी आयुकी तुलनामें चूड़ीकी आयु कितनी है । ब्रह्माके अनन्त कालमें मनुष्य रूपी चूड़ी तो उतनी भी नहीं है । वह तो बिलकुल ही नगण्य है । वह आज जाये या कल इसमें बड़ी बात क्या? अथवा उसमें दरार पड़ जाये तो भी क्या है ? इस विचारको बुद्धि तो तुरन्त समझ जाती है। पर यदि उसे हृदय में उतार लें तो कभी किसीसे डर लगे ही नहीं। ऐसा व्यक्ति कभी बुरा काम नहीं करेगा । वह कभी किसीको दुख नहीं देगा । संकटके समय हमेशा हमारे मनमें यही विचार आना चाहिए और ऐसे समय यह विचार मनमें आये, इसके लिए सदा उसका चिन्तन करना चाहिए।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी से ।

सौजन्य : नारायण देसाई

३७७. पत्र : वि० ल० फड़केको

नन्दी दुर्ग
वैशाख कृष्ण ८ [२४ मई, १९२७ ]

भाईश्री ५ मामा,

प्रश्नकी चर्चासे युक्त आपका पत्र मिला। वह लिखा तो अच्छा गया है परन्तु आप देखेंगे कि मैंने सूरत और बड़ौदा के विषय में 'नवजीवन' में एक भी शब्द नहीं लिखा है । ऐसा मैंने जानबूझ कर किया है । उपद्रव करनेवाले जानबूझ कर उपद्रव करते हैं और करवाते हैं। इस प्रकारका लेख लिखनेसे तो उनपर उलटा ही असर होगा। मैं तो यहाँतक मानता हूँ कि यदि समाचारपत्रों में इन लड़ाई-झगड़ोंके सम्बन्धमें एक भी शब्द न छपे तो ये झगड़े अपने आप ही शान्त हो जायें । परन्तु सभी पत्रकार स्वयं ऐसा नहीं चाहते; इसलिए यह नहीं हो सकता। किन्तु हम लोगोंको, जो इसे जानते हैं उन्हें तो चुप ही रहना चाहिए । जो लड़ना चाहते हैं वे लड़ लें। हमारे लिए तो इतना ही काफी है कि यदि हम वहाँ उपस्थित हों और हमें ऐसा लगे कि अवसर हमारे बलिदानकी अपेक्षा करता है तथा हममें ऐसा करनेकी शक्ति हो, तो