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पत्र : मीराबहनको


तुम अपने आप ही इस काम में तेजीसे जुट गई हो । निश्चय ही हमारा सूत्र यह रहा है कि हिन्दी पहले है और दूसरी सब चीजें बादमें। मैंने तो समझा था कि वह सूत्र कुछ-कुछ उपेक्षित हो रहा है। जब तुम दिल्लीमें थीं और वहाँके गुरुकुलकी विभिन्न मर्यादाओंकी चर्चा कर रही थीं, तब मैंने तुम्हें लिखे अपने पत्रोंमें इस बातपर जोर दिया था। लेकिन मैंने सोचा कि इस सूत्रका अपने पत्रोंमें इससे अधिक उल्लेख करना अवांछनीय होगा। और मैं यह भी जानता था कि तुम स्वयं भी सावधान हो और यदि तुम्हें अपनी ओरसे सुस्ती दिखेगी तो अपने आपको तुरन्त चुस्त बनाओगी। तुमने अब ऐसा कर लिया है, मुझे इससे प्रसन्नता हुई है। मैं बिलकुल सन्तुष्ट हूँ । निस्सन्देह ऐसे असंख्य लाभदायक कार्य हैं जिन्हें तुम हर जगह कर सकती हो । धार्मिक भावना होनेकी सच्ची कसौटी यह है कि मनुष्य ऐसे बहुतसे कामों में से, जो सभी थोड़े-बहुत 'ठीक' हैं, उसे चुन सके जो सबसे ज्यादा 'ठोक' हो । 'भगवद्गीता' के एक श्लोकका यही अर्थ है, जिसमें कहा गया है : “परधर्म कितना ही बड़ा हो तो भी उसका पालन करनेकी अपेक्षा स्वधर्मका, फिर वह कितना ही छोटा क्यों न हो, पालन करते हुए मर जाना ज्यादा अच्छा है ।"[१] इसलिए मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि जिस एक कामके लिए तुमने साबरमती आश्रम छोड़ा है, उसकी यदि जरा भी कुर्बानी या. उपेक्षा करनी पड़े, तो तुम्हें उन बहुत-से कामों की तरफ, जिन्हें तुम आसानीसे कर सकती हो, ध्यान न देनेका हक होगा । और अगर वहाँ या और किसी जगह तुम इसलिए अनचाही मेहमान बन जाओ कि तुम उस कामका आग्रह रखती हो, तो उस स्थानको छोड़ देनेके लिए तुम्हें इतनी चेतावनी ही पर्याप्त है। जब तुम्हें इस तरहकी जोरदार पुकारका अनुभव हो, तब तुम और किसी भी सुझावकी तरफ हरगिज ध्यान मत देना । मगर इस तरहकी तीव्र और जबरदस्त इच्छा भीतरसे उत्पन्न होनी चाहिए। मुझे तुमसे कोई बात हरगिज बार- बार नहीं कहनी चाहिए। मैं बार-बार कहूँगा भी नहीं। तुम जितनी भी प्रगति कर सको, फिर वह कितनी ही धीमी क्यों न हो, मुझे उससे पूरा सन्तोष होगा। तुम जिस ढंगको सबसे उत्तम समझो, उसी ढंगसे हिन्दी सीख लो। अगर तुम्हें ऐसा लगे कि हिन्दीके साथ-साथ दूसरे अनेक काम करनेसे तुम्हारे चित्तको शान्त रखने में और अधिक सहायता मिलती है, तो तुम उन्हें भी करने लगो। इसलिए हमेशा यह न सोचती रहो कि मुझे क्या पसन्द होगा बल्कि जो तुम अपने खयालसे, अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़े बिना, आसानीसे कर सकती हो वही करो। अपनी योजनाको क्रियान्वित करनेमें जब कभी तुम्हें मेरी सहायता या सलाहकी जरूरत हो, फोरन माँग लेना । उदाहरणार्थ, ब्रजकृष्णके पास जानेकी बात है। तुम्हारे तारसे मुझे ऐसा लगा है कि अब तुम्हें उस आश्रमको छोड़नेकी जरूरत नहीं है। किन्तु स्पष्ट है कि तुम यह नहीं जानती कि व्रजकृष्ण तबीयत ठीक न रहनेके कारण ही मसूरी भेजा गया है। किन्तु यदि तुम दिल्ली जाना चाहो, तो मेरी समझमें तो तुम उसके वहाँ न रहने

पर भी उसके घर जा सकती हो । निस्सन्देह यदि भगवद्भक्ति आश्रममें तुम्हें

  1. अध्याय १८, ४७१