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३९५. पत्र : महाराजा नाभाको

नन्दी हिल्स
२८ मई, १९२७

प्रिय मित्र,

मुझे आपका इसी मासकी २० तारीखका पत्र मिला है। समझमें नहीं आया कि आपने मेरे १ जनवरीके पत्रको अपमानजनक क्योंकर समझा । मैं तो आपको आश्वासन भर दे सकता हूँ कि उसमें अपमान करनेका मेरा कोई अभिप्राय नहीं था ।

जो अनुच्छेद आपने अपने पत्रमें उद्धृत किया है, उसे में नहीं समझ पाया हूँ ।
आपकी यह धारणा गलत है कि १ जनवरीका पत्र पण्डित मोतीलालजी द्वारा

बोलकर लिखवाया गया है या वह उनके द्वारा उकसाये जानेपर लिखा गया है । अधिवेशन समाप्त होनेसे पूर्व ही मैंने कांग्रेस छोड़ दी थी और मुझे पण्डित मोतीलालजीके १ जनवरीको कलकत्तामें होनेकी बात भी मालूम नहीं थी। वे वहाँ रहे हों या नहीं, यह निश्चित है कि उन्हें इस बातका पता भी नहीं था कि मैं आपको पत्र लिख रहा हूँ। मैंने केवल यही सोचा था कि इस तरहका पत्र लिखकर में आपके प्रति मित्रताका व्यवहार करूँगा ।

मैं लखनराजके मामलेके बारेमें कुछ नहीं जानता। लखनराज नामका कोई व्यक्ति है भी, यह सूचना मुझे पहली बार आपके पत्रसे मिली। और इसका तो मुझे कतई पता न था कि इससे सम्बन्धित कोई मामला भी है।

मेरी रायमें आपने पण्डित मोतीलालजीका जो चित्र खींचा है, उसके बारेमें कमसे-कम कहा जाये, तो भी उसे अशिष्ट कहना पड़ेगा। आपने जो बातें कहीं हैं, वे सब चाहे उनमें हों, परन्तु सभ्य समाजमें प्रचलित आचरण संहिता इस बातकी इजाजत नहीं देती कि किसी अजनबीके सामने किसी व्यक्तिके, चाहे वह कोई भी हो, चरित्रपर आक्षेप किये जायें। आखिरकार मैं आपके निकट बिलकुल अजनबी हूँ। आपने पण्डित मोतीलालजीके चरित्रपर जो दोष लगाये हैं, उसके बावजूद में समझता हूँ कि वे एक उदार चरित्र, योग्य और आत्म-त्याग करनेवाले देशभक्त हैं। उन्हें देशमें जो प्रतिष्ठा मिली है वह अधिक जनसेवकोंको नहीं मिलती। जैसी कि वर्तमान स्थिति है, उनकी और मेरी राजनीति एक नहीं है। यदि उनकी और मेरी राजनीति एक होती तो मैं अपने निर्णयोंको उनकी विवेकशीलतासे प्रभावित होते देखकर एवं उनके विवेककी कसौटीपर खरे उतरते पाकर अपना मान समझता ।

हृदयसे आपका,

परमश्रेष्ठ नाभाके महाराज
देहरादून ( उ० प्र० )
अंग्रेजी (एस० एन० १२५८१) की फोटो-नकलसे ।