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४०१. गोरक्षा कैसे करें ?

नासिक पिंजरापोलके व्यवस्थापक भाई प्रागजी मावजीने एक पत्रमें नीचे लिखे सुझाव [१]भेजे हैं :

इन सुझावोंमें ऐसी कोई नई बात नहीं है जो 'नवजीवन' में न आई हो । यहाँ ये सुझाव यह दिखानेके लिए दिये गए कि गोमाताके सेवक और पिंजरापोलोंके अनुभवी संचालक पहले बताये हुए उपायोंका किस तरह समर्थन करते हैं। इनमें कुछ जानने लायक बातें भी हैं, जैसे मरे हुए जानवर ठेकेदारोंको दे देनेसे वे उनका किस तरह उपयोग करते हैं। यह जानकारी चौंकानेवाली है। मरे हुए पशुओंका धर्मके नामपर खुद उपयोग न करके दूसरोंको दे देनेसे ही इस तरहका अधर्म होता हड्डियोंके बारेमें जो सूचना दी गई है, उसमें सुधारकी जरूरत है। हड्डियाँ वैसीकी वैसी गाड़ देनेसे उनका खाद नहीं बनता, परन्तु उन्हें पीसना पड़ता है। और माँस, अंतड़ियों वगैराको गाड़ देनेकी जरूरत नहीं। अंतड़ियोंका उपयोग तो आज चमड़ा सीनेकी डोरी, बाजेके तार और तांत वगैरा बनानेमें होता है। माँससे चरबी निकलती है। वह मशीनोंमें बहुत काम आती है। इसलिए वैसाका-वैसा गाड़ देनेके लिए बहुत थोड़ा भाग बचेगा। लेकिन यह तो हुई भविष्यकी बात । जिन चीजोंका उपयोग करनेमें हमें आज धर्मकी कोई बाधा मालूम नहीं होती, उन सबको हम खुद गोशाला और पिंजरापोलोंके द्वारा तैयार करके अधिकसे-अधिक जानवरोंको बचा सकते हैं। और हम यह तत्त्व स्वीकार कर लें, तो सब शोधें हो जायेंगी ।

आखिरी सुझावमें गोसेवकोंको दिया हुआ उलाहना विचारने जैसा है। गोरक्षाके उपदेशकोंकी अपेक्षा सेवा द्वारा काम करनेवालों और सेवाकार्यके साथ ज्ञान प्राप्त करनेवालोंकी ज्यादा जरूरत है। यह बात हर गोसेवकके ध्यान देने योग्य है।

मगर इस पत्रके साथ ही मेरे सामने एक अखबारकी कतरन है, जिसमें अनेक प्रश्न पूछे गये हैं। इन प्रश्नोंके गर्भमें यह बतानेका उद्देश्य है कि मेरे वताये हुए विचार धर्मके अनुसार नहीं हैं, क्योंकि लेखकने इन प्रश्नोंकी प्रस्तावनामें मेरे बताये हुए सिद्धान्तोंका अनादर किया है। मेरे सुझाये हुए सिद्धान्त ये हैं: जो धर्म अर्थका सर्वथा विरोधी है, वह धर्म नहीं, बल्कि अधर्म या धर्मका आभास है। लेखककी मान्यता यह है कि यह सिद्धान्त सनातन सूत्रका विरोधी है। मैं खुद ऐसा एक भी विरोधी सनातन सूत्र नहीं जानता। कुदरत तो इस सिद्धान्तका निरन्तर अनुसरण करती है और मैं नहीं जानता कि इस सिद्धान्तका विरोधी धर्म आज किसी भी जगह चल सकता है। 'जिसे दाँत दिये हैं, उसे चबेना भी देता है', 'हाथीको मन और कीड़ीको कन' ये सब प्रचलित कहावतें भी इसी सिद्धान्तकी गवाही देती हैं। कुदरतने अगर

जीवोंके लिए अनाजकी जरूरत पैदा की है, तो उस जरूरतको पूरा करने जितना

  1. यहां नहीं दिए जा रहे हैं