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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनाज भी पैदा किया है। लेकिन कुदरतकी यह खासियत जरूर है कि जितना आवश्यक है, उतना ही अनाज वह रोज पैदा करती है। परन्तु मनुष्य-जाति उस नियमकी उपेक्षा करके स्वार्थवश होकर जरूरतसे ज्यादा लेती और इस्तेमाल करती है। जिससे अस्तेय और अपरिग्रहके अनिवार्य यमको भंग कर वह अपने हाथों अपने लिये और प्राणि-मात्रके लिए तरह-तरहके दुःख पैदा करती है। शास्त्रोंने ब्राह्मणोंपर ज्ञानका दान करनेका भार रखनेके साथ उन्हें भिक्षा माँगनेका अधिकार दिया और दूसरे वर्णोपर भिक्षा देनेका भार डाला । इस तरह धर्मके साथ अर्थका मेल किया । पाठक इस तरहके अनेक दृष्टान्त खुद निकाल सकते हैं। धर्ममें जमा-उधारके पलड़े बराबर रहने चाहिए। तभी शुद्ध अर्थ होता है, और उसीसे शुद्ध धर्म भी होता है। जहाँ कोई एक पलड़ा घटे या बढ़े, वहीं अनर्थ और धर्मका लोप हुआ समझिए । इसीलिए गीताकारने योगकी व्याख्या 'समत्त्व' शब्दसे की है। मामूली आदमी अर्थका यह धार्मिक उपयोग या अर्थ करता ही नहीं। वह तो सदा नफा कमानेकी इच्छा रखता है। मेरे धार्मिक अर्थमें न नफेकी गुंजाइश है और न नुकसानकी । और जहाँ नुकसान होता हो, वहाँ धर्मकी रक्षा असम्भव है। इसीलिए हिन्दुस्तानमें १,५०० पिंजरापोल और गोशालाएँ होते हुए भी गायकी रक्षा नहीं होती। इतना ही नहीं, दिन-दिन उसकी हत्या बढ़ती ही जाती है। फिर भी यह मानकर सन्तोष कर लेनेसे गोरक्षाके धर्मका जरा भी पालन नहीं होता कि इन संस्थाओंके मौजूद होनेसे ही गोरक्षा हो जाती है। लेकिन यह साबित किया जा सकता है कि मैंने जो उपाय बताये हैं, उनसे उस धर्मका पालन हो सकता है। यह बात हर धर्मार्थी मनुष्य खुद सोच सकता है कि गाय दूध न देती, तो उसको बचानेका धर्म पैदा हो न होता । दूसरे बहुतसे निर्दोष जानवर हैं, जिनका पालन करनेका धर्म किसीको नहीं सूझा; और सूझता तो व्यर्थ होता । गायका उपयोग है। इसीलिए उसे बचानेका धर्म भी हमारे लिये उत्पन्न हो गया ।

अब इस समालोचकके प्रश्नोंका उत्तर संक्षेपमें देता हूँ। उत्तरसे ही प्रश्न समझमें आ जाते हैं, इसलिए प्रश्न अलगसे नहीं देता।

हर गोरक्षिणी संस्थामें ऐसा चर्मालय होना ही चाहिए जो उसके लिए काफी हो अर्थात् जो ढोर मरे उनका प्रारम्भिक उपयोग करना संस्थापकको आना चाहिए । इसलिए यह प्रश्न उठता ही नहीं कि प्रत्येक गोशालामें कितने जानवर होने चाहिए ।

मुझे मालूम नहीं कि गोशालाओंमें पशुओंकी मृत्युसंख्या कितनी है। मगर चर्मालयकी आवश्यकता प्रमाणित करनेके लिए यह संख्या जानना जरूरी नहीं । चाहे एक ही ढोर मरे, तो भी जैसे उसके जीते जी उसे घास वगैरा देनेकी क्रिया गोसेवक जानता है, वैसे ही उसके भरनेके बादकी क्रिया उसे जान ही लेनी चाहिए।

गाँवमें मरनेवाले पशुओंपर भी स्वभावतः ऐसी धार्मिक संस्थाका ही अधिकार होना चाहिए। इसमें चमारों, ढोरों और जनता तीनोंकी रक्षा है। जहाँ गोशाला या चर्मालय न हों, वहाँ ढोर मरे तो उसे नजदीकसे-नजदीककी गोशालामें पहुँचा दिया जाये, बशर्ते कि शहरी गोरक्षाका धर्म स्वीकार करते हों या उस ढोरकी लाशपर प्रारम्भिक क्रिया करके बाकीके भाग वहाँ पहुँचा दिये जायें ।