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पत्र: मीराबहनको


मेरे सुझाये हुए चर्मालयके लिए बड़ी पूंजीकी आवश्यकता नहीं। हाँ, इस शास्त्रको जाननेवाले गोसेवक तैयार करनेमें जो खर्च हो उसकी आवश्यकता है ।

मरे हुए जानवरके चमड़ेसे कल किये हुए जानवरका चमड़ा आज तो अच्छा ही। लेकिन मरे हुए जानवरका चमड़ा सुधारनेके लिए यहाँकी सरकारने लड़ाईमें बेशुमार धन खर्च किया। यह क्रिया जर्मन जानते हैं। इस शास्त्रके जाननेवालोंने मुझे कहा है कि मुर्दा जानवरका चमड़ा कत्ल किये जानवरके चमड़े जैसा ही कमाया जा सकता है। मैं खुद यह प्रयोग कर रहा हूँ। कटकमें श्री मधुसूदनदास भी अपने चर्मालय में यह प्रयोग बहुत वर्षोंसे कर रहे हैं और कहते हैं कि वे इसमें सफल हुए हैं। कलकत्ते की सरकारी 'रिसर्च टेनरी' में यह प्रयोग अभी चल रहा है।

आज हमारी दुर्दशा तो यह है कि मुर्दा जानवरोंका ९ करोड़ रुपयेका चमड़ा विदेश जाता हैं और हम कत्ल किये हुए जानवरोंका चमड़ा अज्ञानवश काममें लेकर उस हत्याके पापमें शरीक होते हैं।

मृत पशुओंके विदेश जानेवाले चमड़ेको रोकना हमारे ही हाथमें है; क्योंकि हम धार्मिक दृष्टिसे चर्मालय चलायें तो इस चमड़ेपर अधिकार करके हम इस देशमें कमसे-कम ९ करोड़ रुपयेकी बचत कर सकते हैं और उससे असंख्य पशुओंका पालन कर सकते हैं ।

हड्डियोंका उपयोग मेरे बताये हुए धार्मिक चर्मालयोंमें अवश्य हो सकता है और होना चाहिए।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २९-५-१९२७

४०२. पत्र : मीराबहनको

नन्दी
२९ मई, १९२७

चि० मीरा,

तुम्हारे दो पत्रों और तारका मैंने खासा लम्बा [१] जवाब भेजा था । तुम्हारे तारके बाद मुझे तुम्हारा पत्र नहीं मिला। इस तरह बोलकर लिखवानेसे मैं थके बिना काफी काम निपटा लेता हूँ, क्योंकि यह काम में लेटे-लेटे करा सकता हूँ। सम्भव है कुछ दिनोंमें ही हम लोग बंगलोर चले जायें, क्योंकि यहाँ हवा बहुत चलने लगी है और जलवायु मेरे लिये अधिक ठण्डा मालूम होता है। अभी भी मेरा तेजीसे घूमना ठीक नहीं है। इसलिए तुम अब बंगलोरके पतेसे पत्र लिख सकती हो । बहुत करके पता कुमार पार्कका होगा। 'बंगलोर शहर' लिखना, क्योंकि बंगलोरके छावनी और

शहर विलकुल दो अलग-अलग भाग हैं और 'शहर' न लिखा जाये तो चिट्ठियाँ

  1. देखिए “ पत्र : मीराबहनको", २८-५-१९२७।