पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/४६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४२६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

छू लेंगे । सम्भवतः आप जानते हैं कि अछूत जातियों में बहुतसे सन्त हुए हैं। परन्तु उनकी सन्तोंमें गणना भी इस दलित वर्गको नहीं बचा सकी है। पुराणपन्थी मस्तिष्क फिर दलील देता है कि यह अछूत जातिका सन्त अपने पूर्व जन्मके कर्मके कारण ऐसा बनता है और स्वाभाविक है कि वह हमारा सम्मान-भाजन है। जब दूसरे भी ऐसे बनें, तो वे भी इसी तरह हमारे सम्मानके भाजन हो जायेंगे। कर्म-सिद्धान्तके इसी अनैतिक निष्कर्षसे हर कदमपर युद्ध करना है और हिन्दू मस्तिष्कको भयंकर तपस्या और ज्ञान द्वारा ही प्रशिक्षित किया जाना है कि कर्म-सिद्धान्तका प्रयोजन सब तरहके सुधार एवं प्रयत्नको नष्ट करना नहीं है। सारी मानव जातिके लिए इसका अभिप्राय है कि सारे दुष्कर्मोका हिसाब-किताब रखा जाये और जो ऐसा नहीं करता वह मानव जातिसे सम्बद्ध होने योग्य नहीं है। इसलिए हिन्दू मस्तिष्कको इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि हीनतम, अत्यन्त पतित एवं पद-दलित लोगोंको स्वाभाविक रूपसे बराबर माना जाये और उनकी तरफ सहायताका हाथ बढ़ाया जाये, जिससे उन्हें बाकीके लोगों जैसे स्तरपर लाया जा सके। और ऐसा क्यों न किया जाये कि अस्पृश्यताकी बातको किनारे रखकर अत्यन्त होनहार युवकोंको अत्यन्त निपुण किसान बनानेके लिए भेजा जाये और आपके सुझावका प्रयोग किया जाये। निश्चय ही आप यह संकेत नहीं देना चाहते कि अस्पृश्य लोग घमण्डमें आकर मानव-मलको खादके रूपमें इस्तेमाल करनेका खयाल करके खेतीबाड़ीका काम सीखनेकी ओर ध्यान नहीं देंगे। यदि आपकी दलील यही है तो यह गलत होगा कि अछूतोंसे ऐसा काम सँभालनेकी आशा की जाये, जिसे दूसरे लोग अपमानजनक समझते हों। जैसा कि आप जानते हैं कि हमारे आश्रममें अछूत बालक हैं। हम उन्हें सफाईका काम करनेके लिए भी नहीं कहते। पहल तथाकथित उच्च जातिके लोगों द्वारा ही की जाती है, क्योंकि ऐसे विषयोंपर तथाकथित अछूत झल्ला उठेंगे। मुझे वैसा अनुभव सभी जगह होता है। इसलिए आपके सुझावके पीछे अभिप्राय अस्पृश्यता सम्बन्धी नहीं है, अपितु साधारण पद्धतिपर खेतीके उन्नत तरीकों के बारेमें है। परन्तु मैंने इस समस्याको कतई सक्रियतासे नहीं सँभाला है, क्योंकि मैं इस सिद्धान्तपर विश्वास करता हूँ कि एक समयमें एक कार्य करना चाहिए। यहाँ बहुत काम बिखरा पड़ा है। इतना ज्यादा आलस्य है, इतना अन्धानुकरण है, इतनी कम एकाग्रता है कि यह आवश्यक है कि एक अत्यन्त साधारण परन्तु लगभग सार्वत्रिक चीजपर पूरा जोर दिया जाये; और यदि उसमें सफलता मिल जाये तो बाकीकी चीजें बादमें हो सकती हैं। कृषि ऐसा उद्योग है जिसमें केवल तभी उन्नति हो सकती है जब इसे राजकीय सहायता मिले। मैं थोरोसे सहमत हूँ कि बुरी तरहसे प्रशासित देशमें, बुरी सरकारका प्रतिरोध करनेवाले नागरिकको सम्पत्तिके अधिकारोंकी अवश्य उपेक्षा कर देनी चाहिए। और स्थायी स्वामित्वके आश्वासनके बिना कृषिके मामले में अधिक कुछ करना असम्भव है। मैं इस विषयपर विस्तारसे कुछ नहीं कहना चाहता। मैं इतना काफी कह चुका हूँ कि शेषकी पूर्ति आप स्वयं कर सकते हैं । यद्यपि आपका सुझाव जहाँतक अछूतोंका सम्बन्ध है, मुझे युक्तिसंगत नहीं लगता और इसे पूरा कर पाना भी कठिन है; तथापि सामान्य