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४०९. पत्र : जुगलकिशोरको

२९ मई, १९२७

मेरी उम्मीद है कि इसी कामसे जितना बौद्धिक और आत्मिक खुराककी तुम्हें हाजत है सब मिल जायगा। यदि इस शास्त्रका प्राथमिक अभ्यास अच्छी तरहसे हो गया है तो उसमेंसे जितना चाहिये उतना उसे मिलनेका मेरे लिये कुछ भी शक नहीं है। प्रत्येक वस्तुका प्राथमिक अभ्यास हमेशा कठिन और निरस रहता है। संगीत और रसिक शास्त्रका भी वही हाल है। गणित शास्त्रका तो हम सबको परिचय है। इसी तरहसे इस भव्य और बुलंद चर्खाशास्त्रका है: इसको में भव्य कहता हूँ क्योंकि जितनी बारीकीसे उसका संशोधन हम करते हैं, उतनी ही नई वस्तु हमको नजर आती है। और जितना कौशल्य किसी और बड़ी चीजमें सफलता पानेके लिये आवश्यक है उतना ही इसमें भी है। इस शास्त्रको बुलंद समझता हूँ क्योंकी उसका संबंध करोड़ोंके साथ है। ऐसा व्यापक संबंध किसानके शास्त्रको छोड़कर और किसी शास्त्रको मैंने नहीं जाना है। इसलिये मैं चाहता हूँ कि इस काममें तुम्हारी लगन मजबूत हो जाय ।

तुम्हारे स्वभावको मैं समझ गया हूँ। जबतक एक चीज तुम्हारी बुद्धि और तुम्हारा हृदय अच्छी तरहसे कबूल न करे तबतक उससे हटते ही रहते हो और यह बिलकुल ठीक है । जो अनुभव मिले मुझको लिखते रहो।

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
सौजन्य : नारायण देसाई

४१०. पत्र : इम्पीरियल इंडियन सिटिजनशिप एसोसिएशनके मंत्रीको

नन्दी हिल्स
३१ मई, १९२७

प्रिय मित्र,

मैं आपकी सभाकी हर तरहसे सफलता चाहता हूँ। परम माननीय श्रीनिवास शास्त्री सर्वश्रेष्ठ मुहूर्तमें अपना कठिन उद्देश्य निभानेके कार्यमें लग गये हैं। उनके साथ सारे भारतकी सद्भावना है। यूरोपीय एवं स्वदेशी, दोनों उनके आनेकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं समझता हूँ कि यदि कोई भी आदमी यूरोपीयों एवं भारतीय प्रवासियोंके बीच एकता स्थापित कर सकता है तो वह व्यक्ति निश्चय ही श्रीयुत श्रीनिवास