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४१८. पत्र : तुलसी मेहरको

मई, १९२७ के अन्तमें ][१]

चि० तुलसी मेहर,

तुम्हारा खत मिला है। बीमारीका वर्णन पढ़कर मुझको दुःख हुआ है। इतना साहस करनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। हमारा सब कार्य रागरहित होना चाहिये । और जो कार्य रागरहित होता है वह हमेशा यथाशक्ति ही बनता है और इसलिए स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता है। तटस्थ भावसे जितना परिश्रम हो सकता हो उतना परिश्रम अवश्य करें। उससे ज्यादह करना वह शरीरको और कामको बिगाड़ना है। मेरा शरीर बिगड़नेका सबब भी वैसा ही था। मैंने महाराष्ट्रके दौरेमें और उसके पश्चात शक्तिका नामकी मर्यादा न रखी। अब उसका दंड दस गुना दे रहा हूँ। जो दो महीने अब व्यतीत हुए हैं उसका एक चौथाई हिस्सा भी यदि में महाराष्ट्रके दौरेमें ज्यादह दे देता तो कार्यक्रम शांतिसे संपूर्ण हो सकता था। और संभव है इस बीमारी से बच सकता था। मेरे सामने तो अब समुद्र का किनारा पड़ा है। तुम्हारी मुसाफरी का तो अब आरंभ ही है। मेरा दृष्टान्त लेकर तुम्हारे शांत बन जाना चाहिये और शांतिसे जितना बन सके उतना किया जाय । शरीर को दुबारा तैयार करनेके लिये दूध-घीकी आवश्यकता समजी जाय तो वगैर संकोच लिया जाय । मैंने तो कहा है ना कि जो साथी दूध-घी छोड़ता है वह अपनी जिम्मेवारीपर खतरेमें पड़ता है और यदि ऐसे त्याग से शरीरकी रक्षा न कर सके तो शीघ्रतासे दूध घी पर जाना चाहिये ।

इस खतका उत्तर मिलने से पहले हि दूसरे खत मिलनेकी आशा करता हूं ।

बापूके आशीर्वाद

मूल (जी० एन० ६५३१) की फोटो-नकलसे ।
  1. गांधीजीके महाराष्ट्रके दौरे और बीमार हुए दो मास गुजर जानेके उल्लेखसे ।