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पत्र : जे० पी० भणसालीको

  मैंने आपकी पुस्तिकाके [१] बारेमें पूछताछ की है । अब मुझे मालूम हुआ है कि वह पुस्तिका मेरे साथियोंमें से एकने देखी थी। परन्तु चूंकि उन्होंने यह पुस्तिका मिलनेके बड़ी देर बाद देखी थी, और मैं अपने काममें इतना व्यस्त था कि कोई पुस्तिका देखनेका मेरे पास समय नहीं रहता था, इसलिए उन्होंने इस पुस्तिकाकी ओर मेरा ध्यान नहीं दिलाया। मुझे खेद है कि यह पुस्तिका बिना प्राप्ति स्वीकृतिके पड़ी रही। अब मैंने वह मँगवा भेजी है। स्वास्थ्यलाभके दौरान आपकी पुस्तिका देखनेके लिए मेरे पास पर्याप्त अवकाश है। यदि मैं इसको ढूंढ़ पाऊँगा तो मैं इसे निश्चय ही पढूंगा और आपको इसपर अपने विचार बताऊँगा । मुझे खेद है कि इन दो विषयोंपर आपको इतनी देरतक असमंजसकी स्थिति में रहना पड़ा। इस सम्बन्धमें कमसे-कम प्राप्ति-स्वीकृति पानेका आपका पूरा अधिकार था। ऐसी चीजोंको बिना प्राप्ति-स्वीकृतिके रहने देना मेरी प्रकृतिके विरुद्ध है।

हृदयसे आपका,

श्री एच० हरकोर्ट

११९, जिप्सी हिल

लन्दन एस० ई० १९
अंग्रेजी (एस० एन० १२४९४) की फोटो-नकलसे ।

४२१. पत्र: जे० पी० भणसालीको

१ जून, १९२७

तुम या कोई अन्य व्यक्ति धार्मिक उद्देश्यसे यदि कोई धर्मकार्य करे तो मैं उसमें अड़चन कैसे डाल सकता हूँ ? किन्तु मैं तुम्हें एक सुझाव देना चाहता हूँ । उपवास एक शारीरिक क्रिया है इसलिए हालाँकि आत्मविकासकी सिद्धिमें उसका बहुत महत्त्व है तथापि तुलनात्मक दृष्टिसे देखें तो उसका यह महत्त्व अपने आपमें ज्यादा होते हुए भी स्वल्प-सा ही है । उपवास तो एक साधन है और उससे उद्देश्यकी सिद्धि तभी होती है जब मन भी उसके साथ हो । मैं जानता हूँ कि तुम्हारे उपवासको तुम्हारे मनका समर्थन भी है, अन्यथा तुम इतने दिनोंतक उपवास कर ही नहीं पाते। फिर भी तुम इसपर और गहराईसे विचार कर देखना। तुम उपवास किसी शुद्धिकी खातिर ही तो करते हो न ? उपवासके बाद क्या तुम उसके परिणामको जाँचते हो ? अथवा परिणामके सम्बन्धमें उदासीन रहते हो ? यदि उदासीन रहते हो तो उपवास सहज धर्मका अंग कैसे हो सकता है ? 'शुद्धिके लिए उपवास करना',

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  1. एच० हरकोर्ट और छोटूराम द्वारा लिखित साइडलाइट्स ऑन द क्राइसिस इन इंडिया; हरकोर्ट इंडियन सिविल सर्विसके सदस्य और गुरदासपुरके डिप्टी कमिश्नर थे। छोटूराम पंजाब सरकारके ऋषि-मन्त्री थे।