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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस प्रकारकी भाषा ही यह बताती है कि उसमें परिणामकी इच्छा निहित है। ऐसी इच्छा करना अनिष्ट नहीं बल्कि इष्ट है। 'फलकी इच्छा'- इस शब्द प्रयोगका अर्थ करनेमें विवेककी आवश्यकता तो होती ही है। मुमुक्षु बनना हमारा धर्म है। मुमुक्षु अर्थात् मोक्षकी इच्छा करनेवाला । फलकी इच्छाके त्यागका शुद्ध अर्थ तो यही है कि त्यागी उस फलको जानता है। किन्तु वह इसकी चिन्ता नहीं करता कि यह फल उसे स्वयं प्राप्त होगा या नहीं। फलकी इच्छा न करना मनुष्यको धैर्यवान बनाता है और उससे साधनकी शुद्धताकी रक्षा में सहायक होता है।

परन्तु यह तो मैं बहुत अधिक लिख गया । मेरा उद्देश्य तुम्हें सावधान-भर कर देना है। यह मेरा धर्म है। किन्तु करना वही जिसके लिए तुम्हारा दिल गवाही दे ।

[ गुजरातीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई

४२२. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

नन्दी दुर्ग
ज्येष्ठ शुक्ल २ [१ जून, १९२७ ] [१]

भाई घनश्यामदासजी,

आपका पत्र मिला। यह खत लिखाते हुए महादेव मुझसे याद दिलाते हैं कि आपने जमनालालजीसे सूचना दी थी कि मैं आपको अंग्रेजीमें खत लिखूं। परंतु ऐसी कोई बात में लिखना ही नहीं चाहता हूं जो किसीको बतानेकी आवश्यकता रहे। इसलिये इस पत्रको हिन्दीमें हि लिखवाता हूं ।

आपका खत स्टीमर परसे लिखा हुआ मिला है। मैंने दो खत इसके पहले लिखे हैं- जिनीवाके पतेसे। वह मिल गये होंगे। मेरा स्वास्थ्य सुधरता जाता है। पू० मालवीयजीसे मैं खत लिखता रहता हूँ। मैं लिखा था वैसे ही उनका इस हफ्तेमें लंबा तार आ गया। उसमें बताते हैं कि स्वास्थ्य है तो अच्छा लेकिन अशक्ति है। आजकल बम्बईमें हैं। मेरा तो यह खयाल है कि मेरे लिये यह कहना कि मैं स्वास्थ्यकी दरकार नहीं करता हूं वह ठीक नहीं है। जितना मैं आवश्यक समजता हूं उतना प्रयत्न स्वास्थ्यरक्षाके लिये ठीक कर लेता हूं। पू० मालवीयजी ऐसा नहीं करते हैं एसा मैंने बहुत दफा लिखा है और उन्होंने आराम लेनेकी प्रतिज्ञा करनेके

बाद भी आराम न लिया। वे वैद्योंके उपचारपर बहुत विश्वास करते हैं और मान

  1. वर्षका निर्धारण पत्रके पाठके आधारपर किया है।